रविवार, 6 जनवरी 2013

किया जैन जगत पर उपकार, खोले संयम के द्वार (1)


अब से 100 साल पहले तत्कालीन समाज में जहां बालक को यम को दे दो, लेकिन यति को न दो, ऐसी कहावत प्रचलित थी, वहां किसी की दीक्षा कितनी दुष्कर होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। उस समय पूरे समाज की मनोदशा ऐसी थी कि दीक्षा लेकर साधु नहीं बना जा सकता। किसी भी साधु के किसी भी युवा को दीक्षा देने की बात करने पर मानो उसने कोई बडा गुनाह करने की तैयारी की हो, उस तरह से लोग उस पर टूट पडते थे।

उस समय के समाज का ऐसा मानना था कि साधु कम उम्र के बच्चों पर जादू-टोना कर उन्हें साधु बना देते हैं। किसी भी व्यक्ति को दीक्षा देने को अपहरण जैसा अपराध माना जाता था। दीक्षा देने वाले गुरुओं को लोग धिक्कार की नजर से देखते थे।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि लगभग 450 वर्ष पूर्व मुगल सम्राट अकबर बादशाह को उपदेश देकर मांसाहार छुडानेवाले अकेले जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज ने 300 साधुओं और 700 साध्वियों के समुदाय के साथ गांधार में तीन-तीन चातुर्मास किए थे। मतलब कि उस समय तक दीक्षा और बालदीक्षा या यों कहें कि संयम मार्ग में जाने के खिलाफ कोई उग्र वातावरण नहीं था और जैन शासन में हजारों की संख्या में साधु-साध्वी बिराजमान थे। अकेले तपागच्छ संघ में ही 18 हजार से ज्यादा साधु-साध्वीजी थे।

औरंगजेब के समय (सन् 1658 से 1707 के मध्य) से इस संख्या में तेजी से कमी होना शुरू हुई। सन् 1669 में औरंगजेब ने मन्दिरों को लूटने, उन्हें तोडने और बलात् धर्म परिवर्तन कराने का फरमान जारी किया। जैन साधु-साध्वियों ने औरंगजेब के समय काफी अत्याचार सहन किए। औरंगजेब द्वारा जैन मन्दिरों में भयंकर लूटपाट और तोडफोड की गई। साधु-साध्वियों के साथ भयंकर अत्याचार किया गया और कई साधु-साध्वियों ने अपने संयम धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया, संथारा ग्रहण कर कालधर्म को प्राप्त हो गए।

औरंगजेब के आतंक से त्रस्त व भयग्रस्त समाज में नई दीक्षाएं बन्द-सी हो गई। इससे समाज में धीरे-धीरे जडता-सी आती गई। लोग धीरे-धीरे धर्म-स्थानों और अपने कुलीन संस्कारों से दूर होते गए।

लगभग 200 वर्षों का कालखण्ड ऐसा रहा, जिसमें नई दीक्षाएं अत्यंत न्यून हुई और लोगों के सोच, संस्कारों व चरित्र में भारी बदलाव हुआ। औरंगजेब की मृत्यु के बाद भी उसके आतंक का साया समाज पर बना रहा। हजारों की संख्या में रहे साधु-साध्वी की संख्या सैंकडों में हो गई और यह भी घटती-घटती संवत् 1969 (सन् 1911-12) तक तो श्वेताम्बर संघ में लगभग 150 रह गई। इनमें भी अधिकांश साधु-साध्वीजी महाराज बुजुर्ग थे। प्रभु महावीर के शासन में संभवतया इतनी कम साधु संख्या इससे पूर्व कभी नहीं रही। ऐसे कालखण्ड में समाज में जडता आ जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि संस्कारों को तो नहीं संभालो तो जाते देर न लगे और बुराई को खूब लातें मारो तब भी वह चली जाए, यह जरूरी नहीं।

भारत में अनेक छोटी-छोटी रियासतें थीं और कतिपय रियासतों ने तो दीक्षा और खासकर बालदीक्षा पर तो रोक लगाकर इसके खिलाफ कानून ही बना दिया था। बडोदरा में गायकवाडी राज्य था और वहां बालदीक्षा के विरूद्ध सख्त कानून लागू था। किसी युवक के नाबालिग होने और उसके माता-पिता अथवा पत्नी के विरोध करने पर उसे दीक्षा लेने के बाद भी घर वापस लौटने की घटनाएं घटित हो चुकी थी, इसलिए गायकवाडी राज्य की सीमा में दीक्षा नहीं दी जा सकती थी। (क्रमश:)

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