मंगलवार, 16 जुलाई 2013

ये धर्मशालाएं हैं या कर्मशालाएं?


आज पालीताणा में धर्मशालाओं की संख्या बहुत बढ गई है। इनमें सुविधाएं भी बहुत बढ गई है, जिसे आप लोग अद्यतन कहते हैं। मौज-मजा के साधन इनमें बसाने लगे हैं, इसलिए जयणा-धर्म नष्ट होने लगा है। इतनी धर्मशालाएं होने पर भी सामान्य यात्रिक को तो प्रायः जगह मिलती ही नहीं है। उनको तो कष्ट उठाना ही पडता है। धर्मशाला का उपयोग धन-प्राप्ति के लिए हो रहा है। थैली खोल दे उसको सभी सुविधाएं मिलती है। जो दाम नहीं दे सके, उनको चक्कर काटने पडते हैं। धर्मशाला में रात्रि भोजन नहीं होना चाहिए, अभक्ष्य भोजन नहीं होना चाहिए, व्यसन का सेवन नहीं होना चाहिए, धर्म विरूद्ध कोई आचरण नहीं होना चाहिए, किसी भी प्रकार के अनाचारों का सेवन नहीं होना चाहिए, लेकिन यह सभी प्रायः आजकल हो रहा है। आज राज्यों में जो लूटमार चल रही है, वैसे यहां धर्मशालाओं में हो रहा है। मुनीम प्रायः मालिक जैसे बन बैठे हैं। तीर्थयात्रा पर आने वाले बहुत से तो सैलानी जैसे आते हैं, जो तीर्थ में आकर भी कर्मनिर्जरा के बदले कर्मबंधन ही ज्यादा करते हैं। आज की धर्मशालाएं सच्चे अर्थ में धर्मशालाएं नहीं रही हैं, अपितु कर्मशालाएं बनने लगी हैं। यह परिस्थिति बहुत ही व्यथाजनक है। तीर्थ के भक्तगण समझें और पाप से डरें तो ही इसमें सुधार हो सकता है, अन्यथा नहीं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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