चौरासी लाख जीवयोनियों में
मानव अपनी बुद्धि-प्रज्ञा के कारण ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हम इस
बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग केवल रोटी-कपडे की व्यवस्था या विध्वंसक कार्यों में न
करें, वर्ना मानव बुद्धि का सम्पूर्ण महत्त्व ही धूमिल हो
जाएगा। हम इस प्रज्ञा का उपयोग मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में करें या यों कहें
कि हमें जन्म ही न लेना पडे, ऐसा पुरुषार्थ हम अपनी
बुद्धि-प्रज्ञा द्वारा करें, जन्म-मरण की श्रृंखला का
सदा-सदा के लिए निर्मोचन करें। इसके लिए अपनी बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग अपने
आत्म-स्वरूप को जानने में करें। आत्म-चिंतन करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं?
मेरे क्या कर्त्तव्य हैं? मैं जन्म-जरा और मृत्यु से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कर
सकता हूं? विचार करें! गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से शुभ
भावों का उदय होगा, आप अन्तर्मुखी-सम्यग्दृष्टि
बनेंगे और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। पुण्य के उदय से प्राप्त
साधन-सामग्री का मजे से भोग-उपभोग करना यानी अपने ही हाथों अपनी दुर्गति खडी करना; इस तथ्य को गहराई से विचार करें। मानव जीवन आत्म-कल्याण के
लिए है, इसे भोगोपभोग में लगाकर व्यर्थ गंवा देना स्वयं अपनी
आत्मा का अपराध करना है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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