शनिवार, 20 जुलाई 2013

परमात्मा के प्रति समर्पण हो


परमात्म-भाव में लवलीन होने की बात हम कई बार करते हैं। लय होने का अर्थ होता है, अपने संपूर्ण अस्तित्व को प्रभु के प्रति समर्पित कर देना। अपनी संपूर्ण सत्ता को परमात्म-भाव के प्रति अर्पित कर देना। हम समर्पण करते हैं। संसार में एक दूसरे व्यक्ति के प्रति हमारा समर्पण होता है। संसार के भिन्न-भिन्न पदार्थों के प्रति हमारी समर्पणा होती है। लेकिन, जिस मूल सत्ता के प्रति हमारा समर्पण होना चाहिए, वह समर्पण हमारा प्रायः नहीं बनता है। जहां हमें समर्पित होना है, वहां से हम प्रायः अपने आप को बचा लेते हैं और जहां हमें समर्पित नहीं होना है, वहां हम अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देते हैं। यह दृष्टि का विपर्यय-भ्रम, दृष्टि-विपर्यास हमें इस संसार में उलझाए हुए है। जन्म-मरण के चक्कर में फंसाए हुए है। यहां तक कि अपने आप के परिचय से भी हमें वंचित किए हुए है। हमें स्वयं का परिचय नहीं होता है। स्वयं का बोध नहीं होता है। शरीर का परिचय होता है, इन्द्रियों का परिचय होता है और बाह्य पदार्थों का परिचय होता है। लेकिन, चेतना का परिचय, आत्म-शक्ति का बोध बहुत कम को हो पाता है, विरली ही आत्माओं को होता है। उसके लिए पदार्थों के प्रति नहीं, परमात्मा के प्रति समर्पण होना जरूरी होता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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