मंगलवार, 9 जुलाई 2013

शरीर, धन आदि की मूर्च्छा कितनी कम हुई?


देव, गुरु, धर्म और साधर्मिक की भक्ति, शक्ति के मुताबिक करने के लिए जैसे उदारता, सदाचारशीलता और सहनशीलता जरूरी है, वैसे सद्विचारशीलता भी जरूरी है। सद्विचारशीलता के बिना तो कुछ भी यथार्थ रूप से नहीं बन सकता। शरीर पर से, धन पर से मूर्च्छा कितनी कम हुई? इन्द्रियों के ऊपर कितना काबू पाया? मन को वश में करने की कितनी कोशिश की गई? इन सब का तीर्थयात्रा पूर्ण होने के बाद हिसाब करना चाहिए। संघपति को तो अपनी आराधना के खयाल के साथ-साथ संघ में आने वाले सभी भाई-बहिन आराधना में अच्छी तरह शामिल हों, इसका भी खयाल रखना चाहिए। संघ यात्रा का हेतु सिद्ध हो सके, उस प्रकार बर्ताव करने की संघ आयोजक की तो खास इच्छा होनी चाहिए। संघपति बनना और शास्त्र-विधि के अनुसार थोडा भी बर्ताव नहीं करना, इस प्रकार के संघ में सच्चे साधु जान-बूझकर तो कभी नहीं जाते। इस देश और इसकी संस्कृति में तो उदार धनिक आत्माओं का सविशेष काम है। संघ के आयोजकों के साथ-साथ इसमें शामिल होने वाले यात्रियों को भी कम से कम एक थैली साथ में रखनी ही चाहिए। थैली का मतलब समझ गए न? और उसका पूरी उदारता से सदुपयोग करना चाहिए। संघ ऐसा निकलना चाहिए कि संघ निकालने की जरूरत नहीं है’, ऐसा सोचने वालों को भी ऐसा लगे कि ऐसा संघ हर साल एक बार नहीं, बल्कि दो-दो बार निकलना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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