भोग भोगने से भोगवृत्ति तृप्त
होती है, यह बात पूर्णतया गलत है। भोग भोगने से जो भोगवृत्ति
तृप्त होती हो तो संसार में कितने ही मनुष्य वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर भी
भोग के पीछे पागल बने हुए नजर आते हैं,
वे दिखते नहीं। आज
वृद्ध बने हुए भी जवान कैसे बनें, उसकी खोज में हैं। उसी के लिए
दवाएं खाते हैं। वे इसके लिए अभक्ष्य,
अपेय आदि का
विवेकपूर्ण विचार भूल जाते हैं और आर्यदेश को शोभित न हो, शर्मसार करने वाले हों, ऐसे खान-पान मौज से खाते हैं। कारण
कि उनकी भोग-लालसा बढ गई है। उनको चाहे जैसा भी पाप करके शक्ति प्राप्त करनी है और
शक्ति प्राप्त कर वृद्धावस्था में भी युवक के समान भोग भोगने की इच्छा है।
आज के विषय-भोग में आसक्त बने
हुओं की एक-एक कार्यवाही का पृथक-करण करके जो कहने लगे तो सुनना भी भारी हो जाता
है, ऐसी आज की दुर्दशा है। विषय-भोग भोगने से विषय-भोग
की वृत्ति तृप्त हो जाती है, यह बात बिलकुल ही असत्य है।
ज्यों-ज्यों आदमी विषय-भोग भोगता जाता है,
त्यों-त्यों उसकी
भोगवृत्ति भी प्रायः बढती जाती है। कुछ ही आत्माएं भोग में पडने के बाद भी
भोगवृत्ति को काबू में ले सकती हैं और भोगवृत्ति को एक बार काबू में लेने के बाद
भी वैसे भुक्तभोगी आत्माओं में से थोडी-सी आत्माएं जीवन पर्यन्त उस वृत्ति को
नियंत्रण में रख सकती हैं। इसलिए यह मिथ्या प्रलाप मात्र ही है कि भोग भोगे बिना
उसका त्याग नहीं किया जा सकता और यदि बिना भोगे कोई त्याग करता है तो वह गिरे बिना
नहीं रह सकता है। ऐसा मिथ्या प्रलाप जिन-शासन के विरोधियों, दीक्षा धर्म के विरोधियों की साजिश मात्र है। -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें