रविवार, 7 जुलाई 2013

उदारता के साथ सदाचार भी हो


गांव-गांव में धर्म की स्थापना, नामना और प्रभावना ठीक-ठीक हो, इसलिए ऐसी संघ-यात्राएं निकालने का ज्ञानियों ने विधान किया है। शक्ति अनुसार अवसर को सफल कर लेना, देव-गुरु-धर्म और धर्मियों की शक्ति के मुताबिक भक्ति कर लेना, संघ के आयोजक और संघ में चलने वाले यात्रियों दोनों का फर्ज है। संघ में मौजमजा करने के लिए या सेठ बनने के लिए नहीं जाना है, बल्कि धर्म साधना के लिए जाना है। उदारता के साथ सदाचार भी होना चाहिए। मेरी आँखें सिर्फ देव, गुरु और साधर्मिक आदि के दर्शन के लिए है, न कि अप्रशस्त दर्शनादि के लिए। मेरे कान जिनवाणी आदि के श्रवण के लिए हैं, न कि अप्रशस्त श्रवण के लिए। मेरी जिव्हा देव, गुरु और साधर्मिक आदि के गुणगान वगैरह के लिए है, न कि निंदादि में अप्रशस्त रूप से प्रवर्तन के लिए। इस प्रकार इन्द्रिय निग्रह पूर्वक धर्म सेवन करने का निश्चय प्रत्येक यात्री को कर लेना चाहिए। साधु भी संघ के साथ आते हैं, उस संघ में आने वालों को इन्द्रियों का सदुपयोग करवाना और रत्नत्रयी, तत्वत्रयी की आराधना कराना वगैरह हेतु धारण करने वाले होते हैं। अतः बात यह है कि श्री वीतराग परमात्मा की दर्शायी हुई आराधना और प्रभावना के लिए ही संघ का आयोजन किया जाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें