सोमवार, 8 जुलाई 2013

साधुता के अनुपम सुख का अनुभव


उदारता और सदाचार के साथ सहनशीलता भी उतनी ही रखनी चाहिए। समभाव पूर्वक मुसीबतें भुगतने के लिए तीर्थ में जाना है। कुछ दिन मिले तो भी ठीक, न मिले तो भी ठीक, उसका अनुभव करने के लिए तीर्थयात्रा है। साधु रोज अनुभव करते हैं। श्री वीतराग परमात्मा की साधुता में जो सुख है, वह सुख दुनिया के चक्रवर्ती पद में भी नहीं है, इसका कुछ अनुभव यथाविधि यात्रा करने वालों को हुए बिना नहीं रहता। जिस आत्मा को साधुता के सुख का अनुभव नहीं है, उसे सुख का कुछ भी खयाल नहीं है, उसको इन्द्रता या चक्रवर्ती पद में सुख भले ही दिखाई दे, लेकिन साधुता के सुख को जानने वाले को या उसका अनुभव करने वाले को इन्द्रता या चक्रवर्ती पद में सुख दिखाई दे, यह संभव ही नहीं है। सच्चा तीर्थयात्री तो सुर-नर के सुखों को भ्रान्ति की तरह ही मानता है और एकमात्र मुक्ति की कामना ही करता है। संघ में आने वाले को कम से कम आधे साधु की तरह तो जरूर बनना चाहिए, ताकि साधुता के अनुपम सुख का थोडा-सा भी अनुभव अवश्य हो पाए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें