शनिवार, 6 जुलाई 2013

‘तन-मन-धन सब अर्पण’


श्री जिनमन्दिर, धर्मस्थान, साधर्मिक भक्ति और अनुकम्पा वगैरह कार्य प्रत्येक गांव में हो सकें, इस प्रकार संघ निकलने चाहिए और इस प्रकार संघ के निकलने से धर्म और शासन की प्रभावना होती है। आज इस उदारता में प्रतिदिन कमी होती जा रही है। धर्म कार्य में उदारता वगैरह जितनी ज्यादा, उसका परिणाम भी उतना ही ज्यादा! धर्म कार्यों में अपनी शक्ति का गोपन न करें। धर्म कार्यों में ऐसा हिसाब तो नहीं ही गिनना चाहिए, जिससे धर्म कार्य का हेतु सिद्ध न हो और आराधना की मात्रा में विराधना बढ जाए। आप भगवान से कहते हो कि तेरी सेवा में तन-मन-धन सब अर्पण’, लेकिन कहने मात्र से क्या होगा? जो कहते हो उसका आचरण करने से कार्य सिद्ध होता है। तेरे दास का भी दास हूं’, ऐसा कहना और श्री वीतराग परमात्मा के दास सुखी हैं या दुःखी, उसकी जांच भी न करना, यह तो सिर्फ वाणी का आडम्बर है। ऐसा आडम्बर श्री वीतराग परमात्मा के शासन में नहीं चलता। साधन होते हुए अवसर पर देने में संकोच करना, यह उदारता की निशानी नहीं है। श्री वीतराग परमात्मा के शासन की जय-जयकार ऐसे लोग कभी नहीं कर सकते। उदारता के साथ कीर्ति के भी उतने ही अनभिलाषी बनने की जरूरत है, क्योंकि ऐसी अभिलाषा भी परम फल की प्राप्ति में विघ्नकर्ता ही है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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