किसी व्यक्ति को क्लोरोफार्म
सुंघा दिया जाए या बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया जाए या वह व्यक्ति शराब अथवा अन्य
मादक पदार्थों का नशा कर लेता है तो बेभान,
उसकी चेतना सक्रिय
नहीं रहती, विवेकशून्य हो जाती है; फिर भाषा वर्गणा के पुद्गल कर्ण शुष्कली तक पहुंचेंगे तो
सही, लेकिन सुनाई नहीं देगा। जब तक भाव इन्द्रियां सक्रिय
नहीं होती हैं, तब तक शब्द वर्गणा के पुद्गल
ग्रहण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार चेतना मोह के नशे में बेहोश हो रही है।
शास्त्रकारों ने मोह को नशा कहा है। जिस तरह शराब पीने से नशा चढ जाता है, उसी तरह आत्मा पर मोह का नशा चढ जाता है। वह फिर अपने
हिताहित के विवेक से रहित हो जाता है। मोह के नशे में मदहोश व्यक्ति के लिए कहा
गया है कि ऐसा व्यक्ति सत और असत् की विशिष्टता को नहीं समझता है। वास्तविक और
अवास्तविक का अन्तर न जानने से, विचार शून्य होने से, वह उन्मत्त की तरह रहता है, उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है। वह उन्मत्त की तरह व्यवहार
करता है। शराब की दशा में व्यक्ति उन्मत्त हो जाता है, उसे भान नहीं रहता है। उसी तरह मोह की निन्द्रा में सोया
व्यक्ति, मोह से अभिभूत व्यक्ति अपने हिताहित का ध्यान नहीं
रखता है। उसका विवेक, उसकी प्रज्ञा इतनी नहीं होती
है कि वह सत्-असत् का विशिष्ट विश्लेषण कर सके,
अपना हिताहित सोच सके।
-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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