शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

सुप्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान


आत्म-साधना में व्रतों का, नियमों का, संकल्पों अथवा प्रत्याख्यानों का बहुत अधिक महत्त्व माना गया है। लेकिन अगर वे व्रत, नियम, संकल्प और प्रत्याख्यान सम्यग्ज्ञान पूर्वक स्वीकार नहीं किए गए हों, भावात्मकता से जुडे हुए नहीं हों, तो वे दुष्प्रत्याख्यान कहलाते हैं। वही साधना आत्म-साधना में सहयोगी बन सकती है, जो सम्यग्दर्शन के साथ, सम्यग्ज्ञान के साथ की गई है। एक व्यक्ति आवेश में आकर प्रत्याख्यान लेता है, क्रोध में आकर नियम लेता है, क्रोध आ गया, गुस्सा आ गया और उपवास कर लिया। आपने भले ही पचकने की पाटी से उपवास पचका हो, लेकिन उसे शास्त्रकार दुष्प्रत्याख्यान कहते हैं, सुप्रत्याख्यान नहीं कहते। दुष्प्रत्याख्यान मोक्षमार्ग में सहयोगी नहीं बन सकते। सुप्रत्याख्यान ही मोक्षमार्ग में सहयोगी हो सकते हैं। आज प्रत्याख्यान तो अनेकों बार लिए जाते हैं, लेकिन अगर वे ही प्रत्याख्यान समझपूर्वक लिए जाएं, उनके द्वारा होने वाली कर्म-निर्जरा पर प्रगाढ श्रद्धा हो, तो वे मोक्षमार्ग के लिए गतिशील बन सकते हैं। दुष्प्रत्याख्यान के द्वारा कर्म-निर्जरा तो हो सकती है, लेकिन उसे अकामनिर्जरा कहा है। अकाम निर्जरा मोक्ष मार्ग में सहयोगी नहीं बन सकती। मोक्षमार्ग में तो सकाम निर्जरा ही सहयोगी बन सकती है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें