‘विषय-कषाय की आधीनता बुरी चीज है’, ऐसी प्रतीति जब तक न हो,
तब तक संसार को तारने
वाले तीर्थ के प्रति प्रेम कैसे जागृत होगा?
तीर्थ की यात्रा करने
वालों में भी अधिकांश में यह विचार नहीं होता है। ऐसे लोगों की तीर्थयात्रा
निरर्थक या मूल्यहीन हो जाए, तो कोई विशेष आश्चर्य की बात
नहीं है। ज्ञानियों ने फरमाया है कि ‘संसार तो सागर है और उसे
तैरकर पार करने योग्य है। जब तक तैरकर किनारे नहीं पहुंचेंगे, तब तक विपत्तियों से घिरे रहेंगे।’ ज्ञानियों के इस कथन पर प्रतीति जागृत होनी चाहिए।
अनंतज्ञानियों का एक-एक वचन शंका आदि दोषों से रहित है, ऐसी प्रतीति जागृत होगी तो ही आत्मा विपत्ति के कारण व
निवारण के उपाय से सुपरिचित बनेगी और फलतः विपत्तियों के कारणों का त्याग व
विपत्तियों के निवारण के उपाय का आचरण भी कर सकेगी। लेकिन, इस जागृति का अभाव ही अनर्थों की जड है। ‘आत्मा के साथ कर्म का योग’, यही संसार है और विषय-कषाय की आधीनता,
यही कर्म के योग का
कारण, इसलिए प्रकारांतर से विषय-कषाय ही संसार है’, लेकिन यह बात आपके दिल को जंचती नहीं है; किन्तु यह बात जंचे बिना सच्चा कल्याण होने वाला नहीं है।
इसलिए परोपकारी बार-बार एक ही बात कहते रहते हैं। रूपक को बदले, शब्द को बदले,
पद्धति को बदले, लेकिन उपदेश्य बात तो यह एक ही है। क्योंकि विषय और कषाय की
आधीनता ही सब दुःखों की जड है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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