धर्मद्वेषी भले ही कितनी ही आलोचना
करें, उसकी हमें परवाह नहीं करनी चाहिए, लेकिन हम अपना कर्त्तव्य पालन करने में कहीं भूल तो नहीं कर
रहे हैं, इसका बराबर पूरा खयाल रखना चाहिए। संघ की महिमा कम
होने में संघ के आयोजक या संघ के यात्रिक की कमियां भी जिम्मेदार हों तो उसके
निवारण के लिए यथासंभव उपाय करने में भी तत्परता बरतनी चाहिए, इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिए। उदारता, सदाचारशीलता,
सहनशीलता, और सद्विचारशीलता;
ये चारों चीजें अगर
योग्य मात्रा में संघपति और यात्रियों के समूह में हों तो विधि का पालन कोई असंभव
बात नहीं है। विधि का पालन जैसे-जैसे ज्यादा, वैसे-वैसे प्रभु शासन की प्रभावना भी
ज्यादा, यह बात निश्चित है। इसलिए विधि-बहुमान का गुण तो
आयोजक और यात्रियों दोनों में आवश्यक रूप से होना ही चाहिए, उसके बिना अच्छा प्रभाव नहीं पडता। लोगों को तीर्थ की महिमा
और तीर्थयात्रा से होने वाले अवर्णनीय लाभ की समझ नहीं है, लेकिन यात्रियों में विधि-बहुमान हो तो भद्रिक और अद्वेष
वर्ग पर अच्छा प्रभाव पडे बिना नहीं रहेगा। विधि-बहुमान नहीं होने के कारण ऊंची से
ऊंची क्रिया भी विष्प्राण जैसी बन जाए,
यह स्वाभाविक ही है। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें