शनिवार, 1 जून 2013

अरिहंत देव की आज्ञा ही परोपकारी


उत्तम आत्माएं अपनी बुद्धि और वाणी के बल से पाप-कृत्य पर उतारू सामने वाली आत्मा को भी पाप से बचा लेती है। ऐसी आत्मा मिथ्या-दया के लिए दूसरे की पाप-याचना के अधीन होकर स्वयं भी पाप करने के लिए तत्पर नहीं होती और यही सच्चा विवेक कहलाता है। परोपकार के नाम पर पाप के प्रति रुचि और पाप की ओर प्रवृत्ति होने का उत्साह, यही एक प्रकार की भयानक कुलहीनता है। इस प्रकार की कुलहीनता में पडी आत्माओं की ओर से की जाने वाली तथाकथित परोपकार की बातों से बचाने के लिए ही श्री जैन शासन ने वचन-विश्वास के बनिस्पत पुरुष-विश्वास को विशेष महत्त्व दिया है और ऐसे पुरुष के रूप में केवल श्री अरिहंत देव को ही स्वीकार किया है। फिर स्पष्ट किया गया है कि उपकार सिर्फ अरिहंत देव की आज्ञा में ही है। अतः सच्चे उपकारी तो उन्हें ही मानना चाहिए, जिन्होंने श्री अरिहंत देव की आज्ञा स्वीकार की है और जो संसार को केवल उनकी आज्ञा-पालन में ही लीन बनाना चाहते हैं। केवल परोपकार की बातें करने वाले लोग वास्तविक रूप से परोपकार और धर्म की आराधना नहीं कर सकते। परोपकार की भावना और धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए, यही सच्ची कुलीनता है। इसलिए पाप से डरें, पाप से बचें, अरिहंत देव की आराधना और उनकी आज्ञा की अनुपालना में लीन बनें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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