सूत्र में कहा गया एक अक्षर
अर्थात्- मूल, निर्युक्ति,
भाष्य, चूर्णि व टीकादि का एक भी अक्षर जिसे नहीं रुचता है, वह मिथ्यादृष्टि है। अंक गणित में पहले एक से नौ अंक होते हैं
और दसवां शून्य। इसके बाद सब इन्हीं अंकों की कारीगिरी है, इसके अलावा नवीन कुछ भी नहीं, क्योंकि कितनी भी बडी संख्या में यही नौ अंक हैं और दसवां शून्य, इसलिए ग्यारह आदि जानने के लिए प्रथमतः दस अंकों को ही
समझना पडता है। जब लाखों-करोडों की संख्या हो अथवा संख्याओं का अनुपात समझना हो तो
यही नौ अंक उसका आधार होते हैं। इन अंकों के योग और गुणा-भाग को कोई नहीं माने तो
वह मिथ्यात्वी ही हुआ न? पैंतालीस आगम मूल हैं और
निर्युक्ति, भाष्य,
चूर्णि व टीकादि मूल
का विस्तार है। पेड के मूल से ही तना,
शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल विकसित हुए हैं।
कोई कहे कि मैं तो केवल मूल को ही मानूं,
तो क्या वह सम्पूर्ण
वृक्ष का विवेचन कर सकता है? ऐसा जो कहे वह सम्यग्दृष्टि
कैसे हो सकता है? जो केवल मूल को माने, उसे वृक्ष की शीतल छाँया लेने और फल खाने का अधिकार नहीं है।
-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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