मंगलवार, 4 जून 2013

दीक्षा का विरोध जिनशासन का द्रोह


सुर-दुर्लभ इस मानव जीवन को सार्थक करने के लिए कोई आत्मा संयम मार्ग पर आरूढ होकर आत्म-कल्याण करना चाहे तो उसे प्रोत्साहन देकर, उसके इस कार्य में सहायक बनने वाला भी कितना पुण्यशाली होता है कि वह केवल अपना संसार ही सीमित नहीं करता, बल्कि तीर्थंकर नामकर्म तक का पुण्य उपार्जित कर सकता है, किन्तु इसके विपरीत आज दीक्षार्थी की दीक्षा लेने में सहायता करना तो दूर रहा, उनके मार्ग में काँटे बिखेरने वाले बहुत हैं। ऐसे ही लोग साधु समाज को सताने, वैरागियों के परिवारों को भडकाने, समाज में झगडे पैदा करवाने और हमारी पावन संस्कृति को क्षति पहुंचाने का षडयंत्र भी करते हैं। लेकिन, दुःख और अफसोस की बात यह है कि ऐसे लोगों को भी अपने निकट बिठाने में समझदारी मानने वाले साधु ही नहीं, अपितु स्वयं को महान् धर्माचार्य मनवाने का प्रयत्न करने वाले भी हैं। यह उनका प्रभु के शासन के खिलाफ मिलाजुला गठजोड है, इसमें कहीं अहंकार है तो कहीं ईर्ष्या और कहीं अति संकीर्ण मानसिकता। यह जिन-शासन का महान् द्रोह है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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