विवेकवान, कुशल व्यक्ति दम्भी आदमियों के दम्भ को निष्फल कर देते हैं, किन्तु पुण्य होता है और लोक का दुर्भाग्य होता है तो लोग
दम्भियों के आगे समझदार की भी अवगणना कर देते हैं। उस अवसर में अज्ञानी लोग समझदार
लोगों को भी बेवकूफ मानते हैं। इसीलिए लोकप्रवाह के अनुसार नाचना हितप्रद नहीं है।
खोजकर, बुद्धि को विवेकमय बनाकर, यथार्थ कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न करना
चाहिए। आज का वात्याचक्र विचित्र है। आज के वात्याचक्र से विवेकशील आत्माएं ही बच
सकती हैं। कारण कि आज बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से अनाचार का प्रचार हो रहा है। आज
परोपकार की बातें करके, अनाचार के मार्ग में प्रेरित
करने के प्रयास हो रहे हैं। अहिंसा और सत्य के नाम से हिंसा और मृषावाद की ऐसी ही
प्रवृत्तियां हो रही हैं। एक तरफ द्वेष करना नहीं, क्रोध करना नहीं, इत्यादि कहा जाता है और दूसरी
तरफ दुनिया की सत्ता आदि का लोभ बढे,
इस प्रकार के प्रयत्न
हो रहे हैं। ये लोभ और क्रोध को बढाते हैं या घटाते हैं? अहिंसा का पालन कब होता है? पहले तो हिंसा की जड की तरफ तिरस्कार होना चाहिए। अर्थ और काम की लालसा, पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा यह हिंसा की जड है। जब तक
पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा से हृदय ओतप्रोत रहेगा, वहां तक सच्ची अहिंसा आए, ऐसा शक्य ही नहीं है। समझदार
कभी लोक प्रवाह में नहीं बहता। वह सम्पूर्ण विवेक के साथ आत्मा के हिताहित का
चिन्तन करते हुए आगे बढता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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