धर्मदेशक ऋद्धि सम्पन्न को
ऋद्धि का त्याग करने को कहे और दरिद्री को तृष्णा छोडने के लिए कहे। अपने पास जो
हो उसका त्याग करना और तृष्णा का त्याग करना, यही कल्याणकारी है। ऐसा धर्मदेशक, ऋद्धि सम्पन्न और दरिद्री दोनों को कहता है। ऋद्धि
सम्पन्नता में कल्याण और दरिद्रता में अकल्याण,
ऐसा ज्ञानी नहीं कहते
हैं। ऋद्धिसम्पन्न मूर्च्छादशा में और दरिद्री तृष्णा में मर जाता है, तो दोनों का अकल्याण होता है। ऋद्धि वाले का वर्णन आए तब
उसका विवेचन भी इस दृष्टि से करना चाहिए कि जिससे श्रोतागण ऋद्धि के लोलुप न बनें, अपितु ऋद्धि की चंचलता को समझें तथा वैराग्य-भाव में रमण
करें। कथानुयोग बांचने वाले धर्मदेशक श्रोता के अन्तर में विषय-विराग की भावना
जन्म ले, कषाय-त्याग करने की वृत्ति हो, आत्मा के गुणों के प्रति अनुराग बढे और आत्मा के गुणों को
विकसित करने वाली क्रियाओं में भी जुडे रहने की अभिलाषा प्रकट हो, इसी रीति से वांचन करना चाहिए। उस रीति से वांचन करते हुए
भी श्रोता की अयोग्यता से दूसरा परिणाम आए तो भी धर्मदेशक को तो एकान्तरूप से लाभ
ही होता है। इसी प्रकार श्रोताओं को भी धर्मकथा का श्रवण इसी इच्छा से करना चाहिए
कि ‘मेरे में विषय के प्रति वैराग्य हो, कषाय त्याग की वृत्ति सुदृढ बने। आत्मा के गुणों के प्रति
सच्चा अनुराग विकसित हो और आत्मा के गुणों को विकसित करने वाली क्रियाओं में मेरा
जितना प्रमाद है वह दूर हो।’ -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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