रविवार, 23 जून 2013

जिनशासन का साधु महासुखी


संसार त्यागी सांसारिक भोगों का अर्थी कतई नहीं होता है। जो मोक्ष के लिए ही आज्ञाविहित जीवन जीता है, वही सच्चा त्यागी है और वह ही त्याग का सुख अनुभव कर सकता है। संसार का त्यागी यदि संसार का अर्थी होगा तो वह महादुःखी होगा, बाकी तो उसके जैसा कोई इस जगत में सुखी नहीं है। सच्चा साधु स्वयं अनन्तज्ञानी श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना करके स्वयं के आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण का समय निकट ला रहा है और अनन्त जीवों को अभयदान दे रहा है। ऐसे विचार से भी श्री जिनशासन का साधु महासुखी होता है। इससे स्पष्ट है कि श्री जिनशासन का साधु तो स्वयं के त्याग का फल त्याग के साथ ही भोगना चालू करता है। उसको संयम कष्टरूप नहीं लगता है। सच्चे साधुओं को कठोर तपस्या वाला संयम भी तकलीफरूप नहीं ही लगता है। दुनियादारी के भोग के पदार्थों का संग्रह नहीं और उसका रस भी नहीं, इसलिए उसको उन पदार्थों को प्राप्त करने की, रक्षण करने की या बढाने की चिन्ता होती नहीं है। साथ ही लुटजाने जैसी कोई चीज नहीं कि जिससे हृदय को आघात हो और रोना पडे। उनको शोक के समाचार आने वाले नहीं हैं, शारीरिक वेदना या उपसर्ग-परिषह के समय समभाव में रहने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए समाधि रहती है। संयम का यह तो प्रत्यक्ष फल है न? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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