सोमवार, 24 जून 2013

जिनाज्ञा पालन में ही सच्चा हित


संयम के सच्चे अर्थी संसार को दावानल आदि रूप मानने वाले होते हैं। इसीलिए वे किसी को भी संसार में रहने की प्रेरणा करें ही क्यों? उनकी भावना तो सब कोई संयम के उपासक बनकर संसार को छेदन करने वाले बनें, यही होती है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ही एकमात्र हेतु से, श्री जिनाज्ञा के अनुसार संयमी बनने का ही एकमात्र ध्येय मनुष्य मात्र का होना चाहिए। इससे विपरीत ध्येय हो तो आत्मा का अहित हुए बिना नहीं रहेगा, यह निर्विवाद बात है।

जीवन में शक्यता के अनुसार श्री जिनाज्ञा का पालन करने में ही सच्चा हित समाया हुआ है। इसलिए जो संसार का त्याग नहीं कर सकते हों, वे भी गृहस्थावस्था में जितने अंशों में श्री जिनाज्ञा का पालन करने के लिए प्रयत्नशील बन सकें, उतने अंशों में कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण से श्री जिनाज्ञा के अनुसरण में ही सर्वस्व को मानने वाले साधुओं का उपदेश इसी ध्येय वाला होना चाहिए।

संसार में रहने की इच्छा वाले जीवों के लिए सच्चे साधुगण बेकार जैसे ही होते हैं। कारण कि संसार में रहने के लिए वे मददगार नहीं बन सकते। सच्चे साधुगण तो संसार से मुक्त बनने में ही मददगार होते हैं। ऐसा होने पर भी, साधुगण स्वयं की तरफ से संसार के जीवों को जो अभय प्रदान करते हैं, उससे तथा योग्य आत्माओं में संसार से मुक्त होने की भावना को प्रकट करने के लिए जो शक्य प्रयास करते हैं, इत्यादि से विश्व के प्राणीमात्र के उपकारी तो हैं ही। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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