शुक्रवार, 14 जून 2013

साधर्मिक बंधु, बंधु लगता है?


एक धर्म को प्राप्त सभी लोग आपस में बन्धु होते हैं। सचमुच में श्री जिनशासन में समानधर्मी होने के योग से प्राप्त होने वाला बन्धुत्व ही सच्चा बन्धुत्व है। यही बन्धुत्व सार्थक है। पहला बन्धुत्व कर्मोदय जन्य है, जबकि यह धर्मप्राप्तिजन्य है। धर्मप्राप्तिजन्य बन्धुत्व धर्म की वृद्धि का कारण ही बनता है। जो इस बन्धुत्व को पाता है, इसे विकसित करता है, वह महापुण्यशाली है। क्या आपको साधर्मिक बन्धु सचमुच में बन्धु लगता है? उसके सुख-दुःख की चिन्ता आपने कभी की है? उसको धर्म की आराधना में कहां अंतराय होती है, इसका कभी विचार किया है? समान-धर्मी आत्माओं के लिए समान-धर्मी आराधना की अनुकूलता की यथाशक्य कोशिश आपने कभी की है? आपको लगता है कि मेरा कोई साधर्मिक बन्धु विपत्ति में है तो यह मेरे लिए लाँछनरूप है? साधर्मिकों की भक्ति किस-किस प्रकार करनी चाहिए, क्या आप जानते हैं? उपकारी महापुरुषों ने इसका वर्णन करने में कोई कमी नहीं रखी है। दुःख की बात तो यह है कि आज व्यक्ति का इतना अधिक अधःपतन हो गया है कि कर्मजन्य बन्धुत्व हो या धर्मप्राप्तिजन्य, दोनों ही घोर स्वार्थ की भेंट चढ गए हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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