मंगलवार, 25 जून 2013

लालसा सर्वविरति की हो


कर्मलघुता को नहीं पाए हुए आत्माओं को अनन्त उपकारियों द्वारा कथित कल्याणकारी बातें भी न रुचें तो यह स्वाभाविक है। इसलिए भगवान ने गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया है, किन्तु गृहस्थाश्रम में रहने का तो उपदेश कतई नहीं दिया है। गृहस्थावस्था का त्याग करके संयमी बनना, यह जिन आत्माओं के लिए शक्य नहीं है, वे आत्माएं भी आत्मकल्याण की साधना से सर्वथा वंचित न रह जाएं और वे भी क्रमशः सुविशुद्ध संयममय जीवन वाले बन सकें, इसीलिए ही भगवान ने गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया है। उपकारकगण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि देशविरति धर्म का भी सच्चा आराधक वही है, जो सर्वविरति धर्म की लालसा वाला हो।

गृहस्थावस्था को कल्याण का कारण मानने वाले अथवा गृहस्थावस्था में रचेपचे एक भी आत्मा को किसी काल में केवलज्ञान न हुआ है और न होने वाला है। गृहस्थावस्था में रहते हुए कल्याण की साधना वाले तो वे ही बन सके हैं और बन सकते हैं कि जो गृहस्थावास को हेय मानें और श्री जिनाज्ञानुसार संयमशील बनने में ही कल्याण मानने वाले बनें, असंयम का पश्चाताप करें और संयम का अनुसरण करें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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