गुरु
किसे कहते हैं?
गुरु भी उसे कहते हैं जो संसार से सर्वथा मुक्त न होने पर
भी संसार का त्यागी हो और मुक्ति की आराधना में मस्त हो। कंचन और कामिनी को पाने
की वृत्ति से जो ‘पर’ नहीं और सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रयी के जो आराधक
नहीं, वे साधु वेष में हों तो भी गुरु नहीं। जो
गुरु आत्मज्ञान से युक्त हो, समदर्शिता
और समता का आचरण करे, आत्मस्वभाव
में रमण करे, वीतराग परमात्मा की
वाणी सुने-सुनाए और परमश्रुत (जिनागमाक्त आज्ञा) के अनुसार अपना जीवन चलाए, वही
सद्गरु है। जैन तत्त्व दर्शन में कहा गया है कि गुरु निर्ग्रन्थ हो, अर्थात्
उसके मन में राग-द्वेष, मोह-माया, छल-कपट, विषय-कषाय
की गांठें न हो, वह गुरु। ऐसे
निर्ग्रन्थ गुरु के आवश्यक सूत्र में 36
गुण बताए हैं-
पंचिंदिय-संवरणो, तह
नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो
चउव्विह-कसायमुक्को, इअ
अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो
पंच-महवयजुत्तो, पंचविहाऽऽयार-पालण-समत्थो
पंचसमिओ, तिगुत्तो, छत्तीसगुणो
गुरु मज्झं
जो
पांचों इन्द्रियों की विषयासक्ति को रोकने वाला (वश में करने वाला) हो, ब्रह्मचर्य
की नवविध गुप्तियों (बाडों) को धारण करने वाला हो, क्रोधादि
चार प्रकार के कषायों से मुक्त हो, इस
प्रकार इन 18 गुणों से युक्त हो, तथा
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों से युक्त हो; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार
और वीर्याचार इन पांच आचारों का पालन करने में समर्थ हो, पांच
समिति और तीन गुप्ति का सम्यक आचरण करता हो, इस
प्रकार इन 36 गुणों से सम्पन्न साधक
ही मेरा गुरु है। सच्चे साधु दुनिया के त्यागी होते हैं। "जो
दुनिया के त्यागी नहीं होते, वे सच्चे साधु ही नहीं हैं", यह
मान्यता आर्यदेश में रूढ थी, परंतु आजकल जिस किसी को साधु कहने की
कुटेव बढ गई है। तीर्थ शब्द का जैसे दुरुपयोग किया जाता है, वैसे
साधु शब्द का भी दुरुपयोग किया जा रहा है। यह नहीं होना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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