सभी धर्मात्मा
परोपकार-रसिक, परोपकार-प्रिय होने ही चाहिए। जिन्हें केवल अपने सांसारिक
स्वार्थ की ही चिन्ता है और उस चिन्ता में जिन्हें दूसरों के हित की चिन्ता करने
का अवकाश ही नहीं हो, ऐसे हृदय वाले व्यक्ति धर्म प्राप्ति के लिए सर्वथा
अयोग्य हैं। जिन व्यक्तियों में बीज रूप में भी परोपकार का निवास हो, वे ही व्यक्ति धर्म
प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि ऐसे मनुष्य केवल अपनी ही चिन्ता में नहीं
रहते, उन्हें दूसरों की चिंता भी रहती है। जो परदुःखकातर होगा, वही संवेदनशील होगा, उसी में
भावना-संवेदना होगी, हृदय की कोमलता होगी, उसी में निर्मलता, सरलता का प्रवेश
संभव है और वही धर्म को अन्तर्हृदय से ग्रहण कर सकेगा। संवेदनशून्य कठोर हृदय के
लिए धर्म कैसे ग्राह्य हो सकता है?
आपको दूसरों की
चिन्ता तो बहुत है, पर दूसरों के कल्याण की चिन्ता है अथवा नहीं, यही देखने की
आवश्यकता है। ‘कल्याण करूंगा तो अपना और अपनों का करूंगा, अहित दूसरों का
करूंगा’, यह बात नहीं होनी चाहिए। आप अपने स्वयं के कल्याण की
चिन्ता क्यों करते हैं, यह बात नहीं है; परन्तु आपको अपने
कल्याण की जितनी चिन्ता है, वह चिन्ता दूसरों के कल्याण से ओतप्रोत है या नहीं? व्यापारी यदि सही
होगा तो व्यापार में भी वह दूसरे की चिन्ता अवश्य करेगा। व्यापारी जानता है कि ‘मैं कमाता तो
ग्राहकों से ही हूं। जिनसे मैं कमाई करता हूं, जिनसे मेरा निर्वाह
होता है, उन्हें मैं अच्छा सामान क्यों न दूं? वह भी यथासंभव सस्ते
भाव पर क्यों न बेचूं?’ आर्य देश के व्यापारी में ऐसे भाव उठते हैं। आर्य देश
का व्यापारी ग्राहक की परिस्थिति की भी चिन्ता करता है। यदि अपने ग्राहक की
परिस्थिति बिगड जाए तो वह उसे सहायता अवश्य करेगा। यह सब क्या है? यह व्यवहार-शुद्धि
है।
शुद्ध व्यवहार
क्रमशः हमें धर्म की ओर प्रेरित करता है। धर्मात्मा मनुष्यों का सांसारिक व्यवहार
भी शुद्ध होना चाहिए। इससे भी धर्म की प्रशंसा होती है। धर्मात्मा मनुष्य का
सांसारिक व्यवहार अशुद्ध हो तो उससे धर्म भी कलंकित होता है। जिसके साथ तनिक भी
संबंध न हो, उसके साथ भी यदि उपकार करने का अवसर प्राप्त हो जाए
तो अपनी शक्ति एवं सामग्री के अनुसार उपकार करने में पीछे नहीं हटना चाहिए। किसी
ने अपना अपकार किया हो, नुकसान पहुंचाया हो, ठेस पहुंचाई हो, कदाचित उसका उपकार
करने का प्रसंग आ जाए तो-तो अधिक प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिए और अधिक उत्साह व
आत्मीयता के साथ उपकार करने की भावना से तुरंत आगे बढना चाहिए। किसी के साथ
व्यक्ति ने उपकार किया हो और सामने वाला उस उपकार को भूलकर अपकार करने लगे, तो भी अपने द्वारा
किए गए उपकार का खेद नहीं हो।-सूरिरामचन्द्र
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