‘धर्म के नाम पर आज जो त्याग की
बातें चल रही हैं, वे अनावश्यक हैं।’ इस तरह की बातों का आज स्थान-स्थान पर प्रचार हो रहा
है। ‘बीसवीं
शताब्दी में त्याग की बातें करना मूर्खता है। त्याग की क्या आवश्यकता है?’ इस तरह कहने वालों को सच्चे
उपकारियों का आदेश समझने के साथ-साथ मैं कहना चाहता हूं कि ‘जिसे सुख से जीना हो, उसे त्याग की भावना हृदय में अपनाए
बिना चलेगा ही नहीं।’ वर्तमान समय प्राचीन काल से भयंकर है। प्राचीन समय में जो
धार्मिक बंधन थे, उनमें इस समय अनेक गुनी वृद्धि करने की आवश्यकता है, क्योंकि दम्भ, अहंकार में वृद्धि होती जा रही है।
आज जो शठ हैं, वे
अपने आपको सेठ लिखवाते हैं। मनुष्यत्व नहीं है फिर भी मनुष्य के रूप में प्रकाश
में आने हेतु प्रयासरत हैं।
उदारता का नाम नहीं,
फिर भी दानवीर की उपाधि लेने वाले
अनेक हैं। ‘आते
हैं पूर्व से और भागते हैं पश्चिम में’, ऐसे कायर भी वीरता का दम्भ बताकर हर्ष से घूम सकते
हैं। तिजोरी खाली है, फिर भी लाल पगडी बांधकर आज अनेक व्यक्ति मोटरों में फिरते
हैं। प्राचीन समय में जितना धन पास में होता था,
उसमें से भी थोडा घर में रखकर ही
व्यापार करते थे; जबकि आज तो पांच रुपये हों तो पचास का व्यापार करते हैं, क्योंकि उनके भाव भिन्न हैं। कमा
गए तो ठीक है और हानि हो जाए तो पगडी ही उल्टी फिरानी है,
इस तरह की मनोवृत्ति हो गई है। वे
समाज के साथ-साथ स्वयं की आत्मा को भी धोखा दे रहे हैं। ऐसों के सामने आत्म-शुद्धि
के उपाय रखने में भी खतरा है। ऐसे लोग अपने दोष छिपाने के लिए आत्म-शुद्धि के
उपायों और धर्म को भी कलंकित कर सकते हैं। इसलिए बहुत सावधानी रखनी है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें