आप सभी धनोपार्जन का
प्रयत्न करते हैं। प्रायः सब की धनोपार्जन करने की इच्छा क्यों होती है? क्योंकि आपने एक दृढ
मान्यता बना ली है कि संसार में धन के बिना काम नहीं चलता। जरा गहराई से सोचिए, संसार में धन के
बिना काम नहीं चलता, इसलिए यदि धनोपार्जन का प्रयत्न किया जाता होता तो भी
संसार के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती। आप ऐसा सोचते हैं कि संसार में हैं इसलिए
हमें धनोपार्जन आदि के लिए मानसिक, वाचिक और कायिक कष्ट
सहन करने पड रहे हैं। लेकिन, अनेक कष्ट उठाकर भी धनोपार्जन करने के बाद.....? उसका व्यय करने में
भी कष्ट और उसकी सुरक्षा करने में भी कष्ट सहन करने पडते हैं। इन सब कष्टों को सहन
कर भी लें तो भी कदाचित् वह धन चला जाए और हम रोते-बिलखते रह जाएं? ऐसा न भी हो तो भी
हमारी मृत्यु तो निश्चित है ही। उस समय यह अनेक कष्ट उठाकर प्राप्त किया हुआ और
सुरक्षित रखा हुआ धन परलोक में साथ चलने वाला नहीं है, यह बात तो निश्चित
है?
यहां रहा हुआ धन हम
जिसे देना चाहते हों, उसके पास ही पहुंचेगा, यह भी निश्चित नहीं
है और उसे प्राप्त हो जाए तो भी यह निश्चित नहीं है कि वह उसके पास ही टिका रहेगा? इसके अतिरिक्त
धनोपार्जन करने में मन, वचन और देह से जो पाप किए हों, कराए गए हों और वे
पाप करने-कराने में जिस आनंद की अनुभूति हुई हो; उन सब पापों का फल
तो भुगतना ही पडेगा? यह सब खराबी हमारे संसार में रहने के कारण ही तो है।
यदि संसार त्याग कर संयम अंगीकार कर लिया हो तो न तो धन उपार्जन करना पडेगा और न
उसकी सुरक्षा करनी पडेगी, जिससे अनेक कष्टों और पापों से बचा जा सकेगा तथा
संयम-साधना में लीन होकर आत्म-कल्याण किया जा सकेगा। अतः संसार में रहना ही बुरा
है, ऐसा संसार हमें नहीं चाहिए, इस तरह संसार से हमें अरुचि हो सकती है।
संसार में धन के
बिना काम नहीं चलता और बिना धन के सुख नहीं होता, यह मान्यता ही अनर्थ
का मूल है। संसार में धन के बिना काम नहीं चलता, इसलिए ही लोग
धनोपार्जन करते होते तो जिनके पास जीवन-निर्वाह और दूसरों की मदद करने के लिए भी
पर्याप्त धन है, इतना धन है कि उनकी सात पीढयां बैठी-बैठी खाए, तब भी
खत्म नहीं हो तो फिर उन्हें और अधिक धन कमाने की क्या जरूरत? लेकिन ऐसा नहीं है।
दरअसल, इसके पीछे कारण है यह मान्यता कि धन से सबकुछ
खरीदा-पाया जा सकता है। सारे सांसारिक सुख धन से प्राप्त किए जा सकते हैं। लेकिन, यही अनर्थ का
वास्तविक मूल है। धन वस्तुतः सुख का साधन नहीं है, वरन् पाप का साधन
होने से दुःख का साधन है। इसे विवेकी मनुष्य मूर्च्छा विहीन होकर सुख का साधन बना
सकते हैं, विवेक पूर्वक उपयोग और ममता रहित व्यवहार से।-सूरिरामचन्द्र
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