क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया
मित्रता का नाश करती है और लोभ, यह सर्वनाशक है। यह
चार प्रकार का विपाक प्रायः सबको प्रतीत है।
क्रोध से अन्ध बनकर नहीं बोलने योग्य वचनों के बोलने से प्रीति का देखते-देखते
नाश हो जाता है। यह सबके अनुभव की बात है। क्रोध यह ऐसा भयंकर कषाय है कि इसके
अधीन बनकर आत्मा अन्धी ही बन जाती है और इससे व्यक्ति स्वयं क्या बोलता है, उसका
भी उसे ध्यान नहीं रहता है। इस ध्यानहीनता के प्रताप से प्रीति तो नाश पा ही जाती
है। किन्तु, इससे आगे बढकर पुनः प्रीति न हो, ऐसा भयंकर संग्राम भी खडा हो
जाता है। इससे स्पष्ट है कि क्रोध प्रीति का जड-मूल से नाश करने वाला है।
मान, यह विनय का नाश करने वाला है, इसे अस्वीकार कौन कर सकता है? मान
यह मानवी को उद्दाम और अक्खड बनाता है, इससे इन्कार कौन कर सकता है? मान
के प्रताप से तो आज अनेक आत्माएं ऐसी दृष्टिगोचर होती हैं कि जो सन्मार्ग पा सकें, ऐसी
योग्यता वाले होने पर भी उन्मार्ग पर चल जाते हैं। मान तो अनेकों को देवदर्शन, गुरुवंदन
और शास्त्रश्रवण से भी वंचित करता है। मान, इसने अनेक आत्माओं में शक्ति
होने पर भी शक्ति नहीं है,
ऐसा कहना सिखाया है। अनेक आत्माएं आज ऐसी हैं कि जो, ‘अमुक
स्थान पर और अमुक समय पर नम्र बनने से फायदा है’, इस प्रकार जानने पर भी
मान के प्रताप से नम्र नहीं बन सकते और स्वयं का हित साध नहीं सकते। सहिष्णुता के
गुण को जानने पर भी मान से भरी हुई आत्मा इस गुण को स्वप्न में भी नहीं अपनाती है।
स्वयं की प्रशंसा स्वयं करना, यह तो महादुर्गुण है। ऐसा जानने वालों को
भी मान ने आज स्वयं के गुणों की प्रशंसा के लिए भयंकर से भयंकर कोटि के भाट बना
दिया है। मान ने आज निन्दा यह महापाप है, ऐसा जानने वालों और ऐसा मानने
वालों को भी महानिन्दक बनाकर भयंकर से भयंकर कोटि के भाण्ड भी बनाए हैं। सचमुच में
इस मान ने प्राणियों के उत्तमोत्तम विनय-जीवन का भयंकर रूप से नाश कर दिया है और
इसी के प्रताप से, इसके उपासक,
औचित्यपूर्ण आचार के भी विरोधी बन जाते हैं। मानी आत्माओं
में अहंकार के योग से मूर्खता शीघ्र ही आती है और इस मूर्खता को लेकर प्रत्येक बात
में वह उचित आचरण का विरोधी बनकर स्व-पर दोनों का संहारक बनता है।
माया ऐसा दूषण है कि जिस दूषण की उपासना करने वालों का कोई मित्र नहीं बनता और
होते हैं वे भी इसकी कुटिलता को देखकर उससे दूर भाग जाते हैं। इसी कारण से माया
मित्रों की नाशक है और यह बात बिना विवाद के सिद्ध हो सके ऐसी है। माया कुशलता को
पैदा करने में बांझ है। सत्यरूपी सूर्य का अस्त करने के लिए संध्या समान है, कुगति
रूप युवती का समागम कराने वाली है, शम रूप कमल का नाश करने के
लिए हिम के समूह समान है,
दुर्यश की राजधानी है और सैकडों व्यसनों को सहयोग देने वाली
है। माया यह अविश्वास के विलास का मंदिर है, इसलिए मायावी, माया
के योग से विश्व में अविश्वास का भाजन बनता है। इससे स्पष्ट है कि ‘माया
इस लोक और परलोक में हित करने वाली सब लगों की मित्रता की नाशक ही है।’
लोभ यह सर्वविनाशक है। कारण कि क्रोध, मान, माया, इन
तीनों की उपस्थिति इस लोभ की आभारी है। इसी कारण से महापुरुष फरमाते हैं कि ‘जिस
प्रकार व्याधियों का मूल रस है और जिस प्रकार दुःख का मूल स्नेह है, उसी
प्रकार पापों का मूल लोभ है। पुनः यह लोभ मोह-रूपी विषवृक्ष का मूल है, क्रोध
रूप अग्नि को पैदा करने के लिए अरणी काष्ठ के समान है। प्रताप-रूपी सूर्य को
आच्छादित करने के लिए मेघ के समान है, कलि का क्रीडा घर है,
विवेकरूपी चन्द्रमा का ग्रास करने के लिए राहु है, आपत्तिरूपी नदियों का
सागर है और कीर्तिरूपी लता के समूह का नाश करने के लिए तीस वर्ष के हाथी जैसा है।’ इससे
स्पष्ट है कि ‘लोभ, यह सर्व का विनाश करने वाला है।’-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें