"मुझ में दोषों का तो
पार नहीं है और गुणों का नामोनिशान नहीं है", ऐसा विचार आपके हृदय
में कभी आता है क्या? ऐसा विचार आने पर स्वयं में दोष होने और गुण नहीं
होने से हृदय में कोई वेदना होती है क्या? क्या सचमुच आप स्वयं
को दोष युक्त मानते हैं? अथवा आप स्वयं को गुणी ही मानते हैं? किसी का उलाहना सहन
करने की आप में शक्ति है? आपको अपने अंतःकरण में उलाहना देने वाला अच्छा लगता
है क्या? क्या आपको कभी ऐसा विचार आता है कि मुझ में दोष अनेक
हैं, अतः मुझे कोई उलाहना देने वाला मिले तो उत्तम हो? कोई मुझे गुणों की
ओर प्रेरित करने वाला मिले तो उत्तम हो?
क्या आपके हृदय में
ऐसा होता है कि मुझे कोई अपनी झूठी प्रशंसा करने वाला, चापलूसी करने वाला न
मिले तो उत्तम हो? आप पहले इस निर्णय पर पहुंच जाइए कि आप स्वयं को कैसा
मानते हैं? आपमें योग्यता है अथवा नहीं, इसका निर्णय करने के
लिए और योग्यता प्राप्त करके उसको विकसित करने के लिए उपर्युक्त विचार अत्यंत
उपयोगी होगा। आपको उलाहना पसंद नहीं आता हो और अपनी प्रशंसा सुनने की चाह हो तो
उसका भी कारण ढूंढना चाहिए।
मुँह से यह कह देना
बडी बात नहीं है कि मुझमें दोष अनेक हैं। ऐसा तो प्रशंसा पाने के लिए भी कहने वाले
अनेक हो सकते हैं। यह तो हृदय की बात है। आप हृदय से यह बात स्वीकार करते हैं क्या
कि मुझ में दोष बहुत हैं? आप यदि यह बात हृदय से स्वीकार करते हों तो आपको
उलाहना सुनना अच्छा लगेगा और प्रशंसा सुनना बुरा लगेगा; अथवा तो यदि आपको
अपनी प्रशंसा सुनना ही अच्छा लगता हो तो आप हृदय में यह समझ जाएं कि यह भी मुझ में
एक महान दोष है, बडा दुर्गुण है।
आज तक आपने कभी किसी
के समक्ष जाकर अपना हृदय सचमुच खोला है क्या? क्या कभी आपने अपनी
वास्तविकता किसी योग्य स्थान पर जाकर स्पष्ट की है कि मैं ऐसा हूं या वैसा हूं? उसके साथ क्या कभी
यह भी कहा है कि ‘आपको यदि मुझ में योग्यता दृष्टिगोचर हो तो मेरा ध्यान रखना। मुझ में अपने दोष
देखने की, ढूंढने की शक्ति नहीं है, अतः आप मेरे दोष
देखें और मुझे उन दोषों से मुक्त कराने की चेष्टा करें।’ आपकी झूठी प्रशंसा
करने वाले तो कई मिल जाएंगे, मुँह पर प्रशंसा करेंगे और पीछे से आपकी हंसी उडाएंगे, उनसे आपका कुछ भला
होने वाला नहीं है। प्रतिबोध देने योग्य वह जीव होता है, जिसमें अपने दोषों
के विषय में सुनने की शक्ति हो और दोषों के विषय में सुनकर भी उन्हें दूर करने की
लगन लगे, ऐसा जिसका हृदय हो। जिस मनुष्य को अपने दोषों के विषय
में सुनते ही दोष बताने वाले पर क्रोध उत्पन्न होता हो, वह कभी गुणवान बन ही
नहीं सकता।-सूरिरामचन्द्र
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