धर्म में सहायक कौन?
अनुकूलता या प्रतिकूलता? इन दो परिस्थितियों में से कौनसी
परिस्थिति जीवन में धर्म के लिए सहायक है?
इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा
सकता है कि निश्चय नय की दृष्टि से धर्म करने के लिए न तो अनुकूलता सहायक है और न
ही प्रतिकूलता। केवल जीव के अध्यवसाय, उसकी भावना और विवेकयुक्त अहिंसक क्रिया ही सहायक
होते हैं, यह
निश्चय नय का उत्तर है।
व्यवहार नय कहता है कि योग्य जीव के लिए अनुकूलता
अधिक सहायक कही जा सकती है। यदि जीव सत्वहीन है तो प्रतिकूलता में किसी समय
कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं, इसलिए ऐसे व्यक्तियों के लिए अनुकूलता को धर्म में सहायक
कहा जा सकता है। अनुकूलता हो तो ही धर्म हो सकता है,
यदि ऐसा हो तो धर्म के लिए अनुकूलता
चाहने वाला क्षम्य है। उनमें प्रतिकूलताओं का सामना करने का माद्दा नहीं होता। ऐसे
लोग प्रतिकूलता आने पर धर्म करने से पीछे हट जाते हैं।
अन्यथा जिसे धर्म करना है,
वह जीव तो धर्म करेगा ही चाहे
अनुकूलता हो या प्रतिकूलता। भूतकाल के महापुरुषों ने तो प्रतिकूलता में अधिक से
अधिक और अच्छे में अच्छा धर्म किया है। इतना ही नहीं,
उन्होंने तो अनुकूलता को ठोकर मारी
है। जिसे साधुपना पालना है, उसे अनुकूलता छोडनी होगी और प्रतिकूलता को अपनाना होगा, तभी साधुपने में सच्चा स्वाद आएगा।
साधु तो अनुकूलता का वैरी होता है। वह जितनी अनुकूलता लेने जाता है, उतने ही दोषों की वृद्धि होती है।
ज्यों-ज्यों दोष बढते हैं, त्यों-त्यों पाप बढता जाता है और वह धीरे-धीरे साधुत्व से
स्खलित होने लगता है। अतः साधु में तो प्रतिकूलता में संयम-पालन की शक्ति होनी ही
चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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