परिग्रह
अच्छा या बुरा?
साधु कौन?
अहिंसक, सत्यवादी, अदत्त न लेने वाला, ब्रह्मचारी
और निष्परिग्रही बनने वाला ही। साधु के ये पांच मूल गुण तो मुख्य हैं। ये गुण
निश्चित हैं। इन गुणों के बिना साधु को एक क्षण भी नहीं चल सकता है। साधु, किसी
भी प्राणी को मन से,
वचन से और काया से मारेगा नहीं, मरवाएगा
नहीं और मारने वाले को अच्छा मानेगा या कहेगा नहीं। झूठ बोलेगा नहीं, बुलवाएगा
नहीं और बोलते हुए को अच्छा मानेगा नहीं या कहेगा नहीं। दूसरे की चीज तृण के समान
भी अनुमति के बिना लेता नहीं है, दूसरे से लिवाता नहीं है और लेने वाले को
अच्छा मानता नहीं है। स्त्री-संसर्ग करता नहीं है, करवाता नहीं है तथा
करने वाले को अच्छा मानता नहीं है या कहता नहीं है। धन-धान्यादि नौ प्रकार के
परिग्रह को रखता नहीं है,
रखवाता नहीं है और रखने वाले को अच्छा मानता नहीं है या
कहता नहीं है। इन पांचों मूल-गुण को धारण करने वाले एवं गुरुकुलवास में रह कर, ग्रहण-शिक्षा
और आसेवन-शिक्षा पाकर व्यवहार, नयादि के ज्ञाता बनकर, गुरुपद
को प्राप्त हुए धर्मगुरु आपको क्या कहते हैं? "क्या खुशी से हिंसा
करने को कहते हैं?
क्या इस युग में झूठ बोले बिना नहीं चलता है तो बोलो, ऐसा
कहते हैं, इसमें कोई दिक्कत नहीं है, ऐसा कहते हैं? क्या
इस युग में सीधे प्रकार से कोई नहीं देता है तो चोरी में भी दिक्कत नहीं है, ऐसा
कहते हैं? क्या इस युग में मन काबू में न रहे, तो स्त्री-संसर्ग में भी हरकत
नहीं है, ऐसा कहते हैं?
क्या इस युग में परिग्रह के बिना चलता नहीं है, इसलिए
परिग्रह रखना ही चाहिए,
ऐसा कहते हैं?" कहना ही पडेगा कि
इसमें से एक भी बात,
धर्मगुरु कह सकें, ऐसी नहीं है। कारण कि
धर्मगुरु के लिए शास्त्रों में कुछ कम नहीं कहा है। जिस प्रकार वे हिंसा, असत्य, अस्तेय
और अब्रह्म को आचरण नहीं करते हैं, आचरण नहीं करवाते हैं और आचरण
करने वाले का अनुमोदन नहीं करते हैं; उसी प्रकार परिग्रह भी रखते
नहीं हैं, रखवाते नहीं हैं और रखने वाले को अच्छा भी नहीं मानते हैं। परिग्रह रखने को
यदि अच्छा मानें तो परिग्रह रखने की भावना हुए बिना भी रहेगी ही नहीं। परिग्रह
रखना यदि अच्छा होता तो उसको छोडना अच्छा क्यों गिना जाता? और
यदि छोडना अच्छा है तो रखना अच्छा कैसे गिना जाए? यदि दिवालिया अच्छा
कहलाता हो तो साहूकार साहूकारी किसलिए रखेगा? उसी प्रकार यदि परिग्रह अच्छा
होता, यदि द्रव्य-धन रखने को अच्छा कहा जाता तो घरबार, पैसे-टके आदि छोडकर आए
हुओं को हाथ जोडने का काम क्यों होता? बल्कि उल्टे साधु आपको हाथ
जोडने चाहिए।
आपके
पास घर-बार, बंगला, बगीचा सब ही है और पत्नी, बगीची, गाडी तमाम वस्तुएं हैं और
साधु के पास तो इनमें से कुछ भी नहीं है, साधु तो रमते राम हैं, अर्थात्
यदि परिग्रह अच्छा होता और परिग्रह रखना यह अच्छा, ऐसा होता तो
साधुओं को तो उल्टे आपको हाथ जोडने चाहिए। फिर भी आप लोग उनको हाथ जोडते हो, इसका
कारण क्या है?
यदि आप आपके पास है उन सबको छोडकर बैठे हुए साधुओं को हाथ
जोडते हो; तो आप लोग जो लेकर के बैठे हो उसको गलत कहो। परिग्रह को अच्छा मानना और
निष्परिग्रही को हाथ भी जोडना, यह दोनों बातें नहीं बन सकतीं। दो नावों
की एक साथ सवारी नहीं की जा सकती। आप लेकर के बैठे हो यह अच्छा होता तो हमने छोडा इसमें
भूल है। इसमें भूल की है,
ऐसा कहो और यदि इसे भूल न कहो तो आप जिसमें बैठे हो, उसको
गलत कहो। एक रास्ता निकालो। मैं तो मानता हूं कि हमने छोडने में भूल नहीं की, किन्तु
अच्छा ही किया है। इस प्रकार होने पर भी हमने जो छोडा है, उसमें
यदि आप भूल मानते हो तो आप मुझे समझाओ और छोडने को अच्छा मानते हो तो छोडने का
प्रयत्न करो। मेरा तो आपको आह्वान है कि ‘या तो आप सुधरो या हमारी भूल
हो तो हमें भी सुधारो।’
किन्तु अवसरवादी बनो, बिना पैंदे के भरतपुरी लोठे
की तरह इधर-उधर गुडको तो यह नहीं चलेगा।-सूरिरामचन्द्र
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