सोमवार, 29 जून 2015

बालदीक्षा के खिलाफ देश में कोई कानून नहीं है



बालदीक्षा को कानून का उलंघन बताकर न्यायपालिका को गुमराह करने और चीजों को गलत संदर्भ देने का प्रयास कर रहा है, जबकि देश में और किसी राज्य के कानून में बालदीक्षा पर रोक का कोई प्रावधान नहीं है, क्योंकि ऐसा प्रावधान संविधान के मूलभूत अधिकारों और अनुच्छेद 25 के प्रावधानों का उलंघन है। यह मामला जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के अधीन भी नहीं आता है।

स्वयं गुजरात उच्च न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया है, इसीलिए उसने तथाकथित जैनी जस्मीन शाह की अपील के मद्देनजर बिना जैन धर्माचार्यों का पक्ष सुने, बिना जैन धर्म का अध्ययन किए, बिना आगमों को जाने ही इस प्रकार की धर्म-विरोधी टिप्पणियां कर कानून बनाए जाने की बातें अपने आब्जर्वेशन में लिख दी है। गुजरात उच्च न्यायालय को तथाकथित जैनी जस्मीन शाह ने अपने वकील के जरिए पूरी तरह गलत सूचनाएं और गलत जानकारियां दी है, जो IPC कि धारा 211 के तहत दंडनीय अपराध है और इसी का यह परिणाम है कि 8 मई, 2015 को गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश से पूरे जैन धर्म एवं समाज को कलंकित होना पडा। इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार सिर्फ एक और एक ही व्यक्ति है, जो अपने आपको कहता तो जैनी है, किन्तु यह धत्कर्म बताता है कि वह जैनधर्म का ही विरोधी है।

सन् 2007 में उदयपुर के नजदीक एक गांव में तेरापंथ धर्म संघ में चार बालदीक्षाएं हुई। दो वकील साहबान को यह नागंवार गुजरा और उन्होंने कोर्ट में मामला दर्ज करवाया, अपील की कि बच्चों की दीक्षाएं जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का उलंघन है और यह उनके प्राकृतिक विकास को अवरूद्ध करनेवाला, उनके साथ अन्यायपूर्ण कदम है। तब मामले पर सारी सुनवाई के बाद तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट श्री ब्रजेन्द्र कुमार जैन ने (जो वर्तमान में राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं) जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया, जो हर किसी को पढना और समझना चाहिए। खासकर बालदीक्षा के खिलाफ हल्ला मचाने वालों को तो जरूर पढना ही चाहिए।

माननीय न्यायाधीश महोदय ने अपने आदेश में लिखा है कि किशोर न्याय (बालकों की देखरेख व संरक्षण) अधिनियम, 2000 के प्रावधानों को उक्त अधिनियम के बनाने की विधायिका की मंशा, उद्देश्य व प्रस्तावना को दृष्टिगत रखते हुए देखा जाए तो बालदीक्षा किसी भी प्रकार उक्त अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत नहीं है। उन्होंने इस अधिनियम की धारा 23 24 का, इस अधिनियम की प्रस्तावना का सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक विनिश्चय के प्रकाश में बहुत ही सुन्दर तरीके से विवेचन किया और परिवाद को खारिज कर दिया।

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