आवश्यकतानुसार धन
प्राप्त करने की बात करने वाले भी इच्छानुसार धन प्राप्त करने पर अधिक धन प्राप्त
करने की इच्छा करने लगते हैं। उनमें लोभ-लालच पैदा हो जाता है, तृष्णा जाग जाती है। तत्पश्चात उनका मस्तिष्क बिगड जाता है। उनकी आवश्यकताएं बढ जाती हैं। पहले जो
आवश्यकताएं नहीं थी, वे आवश्यकताएं धन-प्राप्ति के पश्चात उपस्थित हो जाती
हैं। और जैसे-जैसे पूर्ति होती है, वैसे-वैसे नई-नई
आवश्यकताएं पैदा होती जाती है। क्या आपने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया? क्या आपने कभी ऐसा
होते नहीं देखा? जिन व्यक्तियों की ऐसी दशा है, उन्हें पापोदय और
पुण्योदय का विचार अवश्य करना चाहिए। ऐसी दशा वाले मनुष्य पापोदय और पुण्योदय का
विचार करें, तो ही वे अपने मन पर कुछ नियंत्रण रख सकते हैं और इस
नियंत्रण का बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वे ऐसा करके न केवल अपने मन को
व्याकुलता में डूबने से उबार सकते हैं, शोक-संतप्त होने से
बच सकते हैं; अपितु बहुत शान्ति और संतोष का अनुभव भी कर सकते हैं।
यदि आगे बढा जा सके तो उनमें उदारता, सर्व-संग परित्याग
की वृत्ति आदि अनेक गुण विकसित हो सकते हैं।
प्राप्ति न हो तो
पापोदय और प्राप्ति हो तो पुण्योदय मानने से मन की क्षुब्धता रुक जाती है। यह पहला
परिणाम है। इससे पाप का परित्याग करने की और पुण्य का आचरण करने की प्रेरणा मिलती
है, यह दूसरा परिणाम है। फिर हृदय में भाव आता है कि मैं पाप एवं पुण्य की इस
आधीनता में क्यों रहूं? मुझे तो ऐसा हो जाना चाहिए कि मेरा कुछ भी न तो पाप
के आधीन रहे और न ही पुण्य के आधीन रहे; यह तीसरा परिणाम है।
इस तरह मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न होती है। तत्पश्चात् क्रमशः मुक्ति-मार्ग का
ज्ञान, मुक्ति-मार्ग की आराधना और अन्त में मुक्ति भी
प्राप्त होती है। इस तरह पुण्योदय और पापोदय के विचारों से लाभ तो अत्यधिक हैं; परन्तु आप सब
पुण्योदय एवं पापोदय की केवल बातें ही करते हैं अथवा उन पर अमल भी करते हैं? ‘मुझे पुण्योदय और
पापोदय का विचार कितना आता है और मैं उस पर अमल कितना करता हूं?’ इस विचार को अत्यंत
वेग युक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए। आपको तो ऐसी उत्तम सामग्री उपलब्ध है, अतः आप यदि प्रयास
करें, आपके हृदय में इस तरह के विचार उत्पन्न हों, तो आप काफी आगे बढ सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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