यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगड़ा करना माना
जाता है तो ऐसा झगड़ालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख
दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह
पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म
की रक्षा के लिए अड़जाना,
झगड़ा करना है तो ऐसा झगड़ालू होना, अपने
सत्य-धर्म का पालन करना है। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगड़ालू कहते थे। श्री
जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष
करना झगड़ा करना है तो ऐसे झगड़ालू होने पर हमें गर्व है, संतोष
है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में
मूकदर्शक रहना,
साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है।
सत्य के लिए मरना पड़े तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो
किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है। भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों
की रक्षा के लिए लड़ना पड़े तो लड़ता है, शेष दुनिया की किसी चीज के
लिए वह नहीं लड़ता। लड़ते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही
हुई होती है। क्योंकि,
यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण
करने वाला है। असत्य-अधर्म का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पड़ता। यदि
चैन पड़े तो उसका साधुपन नहीं रहता।-सूरिरामचन्द्र
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