पिछले तीन दिनों में और उससे पूर्व 10 मई से 14 मई तक
जैनधर्म पर हमले के संबंध में समाज को जागृत करने के लिए हमने जो कुछ लिखा, उसे देशभर के और विदेशों में रह रहे प्रवासी भाई-बहिनों ने भारी
समर्थन देकर हमारे साथ अपनी सहमति व्यक्त की है, उन सबके प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करते हैं, किन्तु उन सबसे निवेदन है कि वे इतने में ही अपने कर्तव्य की
इतिश्री नहीं मानें, बल्कि हमने जो कुछ लिखा
है, उसे अधिकतम लोगों के साथ शेयर
करें, जो भी साधु-साध्वी भगवन उनके सम्पर्क
में हों उनसे बात करें और विनति करें कि समाज की जागृति के लिए इस विषय को वे अपने
प्रवचनों में विशेष रूप से प्राथमिकता दें। और जब भी हमारी मुहिम एक विशाल अहिंसक आंदोलन
का स्वरूप ले, वे इसकी अगुवाई करने को कटिबद्ध
हों।
हमारे एक मित्र ने हमारे आलेखों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है
कि "ऐसी एक दार्शनिक और ऐतिहासिक मान्यता है कि किसी भी जाति को खत्म करने के
लिए आवश्यक है कि उसके संस्कार व सभ्यता को खत्म कर दो।" और आज आर्य संस्कृति
और विश्व को अहिंसा व स्याद्वाद के जबरदस्त संदेश देने वाले जैनधर्म को खत्म कर देने
व इसकी बुनियाद दीक्षाधर्म को नष्ट कर देने के लिए सुरंगें बिछाई जा रही है। हैरत की
बात यह है कि यह काम भी तथाकथित जैनियों से ही उनकी मानसिकता भ्रष्ट करके करवाया जा
रहा है, ताकि दूसरों पर आरोप न आए। आधुनिकता
के फेर में आज हर कोई बौद्धिक दिवालियेपन का शिकार जल्दी हो जाता है और उसकी सोच धर्म
के शाश्वत सिद्धान्तों के विपरीत चली जाती है तब वह ऐसे आत्मघाती कदम उठाने लगता है, जैसे जस्मीन शाह और रोहित शाह जैसे लोग उठाते हैं।
एक फर्जी गजट के मामले के बहाने बालदीक्षा पर प्रहार करने पर
आमादा है और एक समुदाय विशेष को टार्गेट कर उसके माध्यम से पूरे जैनधर्म, दर्शन, मान्यता
व उज्ज्वल परम्परा को नष्ट करने पर आमादा है तो दूसरा दीक्षाधर्म को ही गलत बताने पर
आमादा हुआ है ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी। दोनों में कोई दुरभिसंधि है, यह तो हम नहीं जानते, लेकिन इतना तो तय है कि दोनों के रास्ते एक दूसरे के पूरक अवश्य हैं।
एक और मित्र ने लिखा है कि किसी जाति को नष्ट करना हो तो उसकी
युवा पीढी को नशे में डुबो दो। यह नशा भी कई प्रकार का होता है। केवल ड्रग्स या शराब
आदि मादक पदार्थों का नशा ही नशा नहीं होता, धन का भी नशा होता है, नाम का
भी नशा होता है, बदले का जुनून भी भारी नशा देता
है, अहम नशे का पोषण करता है और इन
दोनों की प्रवृत्तियां भी किसी नशे के अधीन ही लगती है, क्योंकि नशे में व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है, फिर वह धर्म के लिए, समाज
व संस्कृति के लिए, अपने जीवन के कल्याण के लिए अच्छे और बुरे का विवेक खो देता है
और अपने ही घर को, अपने ही आधार को आग लगा
देने पर आमादा हो जाता है।
समाज को ऐसे धर्म-नाशक लोगों से और इनकी ऐसी दुष्ट मनोवृत्तियों
से अवश्य बचना चाहिए, सावधान होना चाहिए, इन्हें शिक्षा देनी चाहिए, इनके रिश्तेदारों-परिवारजनों को चाहिए कि वे इन्हें समझाएं और सही राह पर लाएं।
अंत में एक मित्र को धन्यवाद कि जिन्होंने लिखा है कि "पौधे
को ही कलम लगाकर परिवर्तित किया जा सकता है, वृक्ष को नहीं, यह सर्व विदित तथ्य है।"
एक और मित्र ने लिखा है "आत्म-कल्याण प्रत्येक मानव का लक्ष्य होना चाहिये !! जितना शीघ्र इसके मार्ग का अवलम्बन किया जाये उतना ही श्रेयस्कर है !! शुभस्ते-शीघ्रम !! वैराग्य या दीक्षा आत्मकल्याण की यात्रा का प्रारम्भ ही है !! बाल-दीक्षा और कुछ नहीं इस यात्रा की जल्द की गई शुरूआत है अत: असन्दिग्ध शुभ है !! आत्मकल्याण को मानव-मात्र के लक्ष्य रूप मे स्वीकृति और बाल-दीक्षा का विरोध स्व-व्यतिघात का दोष उत्पन्न करता है !! विरोधियों को सम्यक् चिन्तन की नितान्त आवश्यकता है !!"
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