बुधवार, 26 दिसंबर 2012

गांधी से हुआ टकराव (1)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का तत्कालीन भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले मोहनदास करमचंद गांधी से जीवन मूल्यों और सिद्धांतों को लेकर खूब टकराव चला.
गांधीजी वैष्णव कुल में जन्में, विदेश जाने से पूर्व उन्होंने एक जैन मुनि से मद्य-मांस का सेवन न करने का संकल्प लिया और अहिंसा को अपने जीवन का, अफ्रीका में रंग-भेद के खिलाफ आंदोलन में और हमारे देश में आजादी की लडाई में मूल मंत्र बनाया। किन्तु उनकी यह अहिंसा आधी-अधुरी ही थी, क्योंकि वे भी तुष्टिकरण की राजनीति करते थे। उन्होंने अहमदाबाद के भद्रकाली मन्दिर में होने वाली बकरे की बलि का समर्थन किया, एक मिलमालिक द्वारा अपनी मिल में 60 कुत्तों को एकसाथ गोली मारकर उनकी हत्या कर दी तो उन्होंने यहां भी फण्डिंग के लालच में मिलमालिक से अपने रिश्तों के चलते उसका समर्थन कर दिया। कई बार सच्चाई को दबाने के लिए उन्होंने झूठ का सहारा लिया। इन्हीं कारणों के चलते जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का उनसे खूब टकराव चला, गांधीजी ने इस टकराव में अपने अखबार नवजीवनका भी इस्तेमाल किया, उसे अपना हथियार बनाया और आचार्यश्री पर बौद्धिक हमले किए, लेकिन अंततोगत्वा गांधीजी को अपनी गलतियां स्वीकार करनी पडीं। हिंसा-अहिंसा के विवेक और व्याख्या में अपरोक्षरूप से तब मुनि श्री रामविजय जी के खिलाफ चलाई गई लेखमाला को उन्हें रोकना पडा।
दरअसल इस टकराव के पीछे असली वजह दूसरी थी। गांधी जी चाहते थे कि जैन मुनि चरखा कातें, जैन साध्वियां नर्स का काम करें और इन सब में जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा अपने प्रभाव का इस्तेमाल करें, साधु-साध्वियों को इसके लिए प्रेरित करें। इसके साथ ही गांधीजी चाहते थे कि पूज्य आचार्यश्री आत्म-धर्म को छोडकर राष्ट्र-धर्म के लिए स्वतंत्रता संग्राम में उनके साथ आ जाएं। इसके लिए उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के जरिए भी काफी कोशिशें की, किन्तु आचार्यश्री (तब मुनिश्री रामविजयजी) इसके लिए तैयार नहीं हुए। इससे गांधीजी बौखला गए, नाराज हो गए।
मुनिश्री रामविजयजी और गांधीजी दोनों समकालीन थे, हालांकि गांधीजी आयु में मुनिश्री से 27 वर्ष बडे थे, लेकिन देश में और खासकर अपनी कर्मभूमि अहमदाबाद-गुजरात में अपने-अपने क्षेत्रों में दोनों ने एक ही समय में प्रवेश किया। गांधीजी इससे पहले अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्षरत थे। बीसवीं सदी में भारत की राजनीति में यदि किसी एक व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव था तो वह निःसंदेह मोहनदास करमचन्द गांधी का था और उसी समय जैन धर्म में यदि किसी एक आचार्य का सबसे ज्यादा प्रभाव था तो वह व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का था, जो गांधीजी से टकराव के समय सिर्फ जैन शासन के एक मुनि थे। स्वभाव से दोनों जिद्दी थे। एक पर मुनिधर्म, अहिंसा की सही-सच्ची व्याख्या करने और जैन संस्कृति की रक्षा का जुनून सवार था तो दूसरा उसका अपने मतलब और अपनी ताकत बढाने के लिए व तुष्टिकरण की राजनीति के लिए इस्तेमाल करना चाहता था। अहिंसाशब्द की व्याख्या भी गांधीजी ने जैन धर्म की सूक्ष्म व्याख्या के खिलाफ निहीतार्थों में की। (क्रमश:)

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