आत्मा का परिणाम आत्मा के
परिणाम द्वारा भेदा जाता है, इसका अनुभव तो कदाचित आपने
अनेक बार किया होगा? राग का भाव द्वेष के भाव से
भेदा जाता है, उसका आपको अनुभव नहीं है क्या? एक समय जिसके ऊपर आपका राग था, उस पर कभी आपको द्वेष पैदा हुआ या नहीं? और एक बार जिसके ऊपर द्वेष भाव था, उसके ऊपर आपको कभी राग भाव हुआ या नहीं? ऐसा तो अनेक बार हुआ होगा और होता रहेगा, परन्तु मन का परिवर्तन कब-कब और कैसे-कैसे होता है, उसका विचार आपने कभी किया है?
किसी समय आपका दान देने का मन
हो गया हो, परन्तु दान देने से पहले दान देने का विचार बदल गया
हो, ऐसा भी कभी हुआ है या नहीं? लक्ष्मी के लोभ के भाव ने दान के भाव को भेद डाला, ऐसा हुआ है या नहीं?
तब, जो भाव मन में प्रकट हुआ हो, उससे विपरीत कोटि का भाव यदि जोरदार बन जाए तो इससे पहले का भाव भेद दिया जाता
है।
दान का भाव लक्ष्मी की
मूर्च्छा से भेद दिया जाता है और शील का भाव विषय सुख की अभिलाषा से भेद दिया जाता
है। इत्यादि बातें सरलता से समझी जा सकती हैं। क्योंकि लक्ष्मी की मूर्च्छा और
विषय-सुख की अभिलाषा आदि भावों में जीव अनादिकाल से रमण करता आया है, जबकि दान और शील आदि के भाव आत्मा ने अपने पुरुषार्थ से
पैदा किए हैं।
आत्मा ने अपने पुरुषार्थ
द्वारा जिस दान भाव को और शीलभाव को पैदा किया है, उसे यदि वह बराबर टिकाए रखता है और उसे बहुत-बहुत बलवान बनाने में यदि वह सफल
होता है तो दान के भाव से लक्ष्मी की मूर्च्छा का भाव और शीलभाव से विषय सुख की
अभिलाषा का भाव भेदा जा सकता है। अन्यथा,
दान के भाव को लक्ष्मी
की मूर्च्छा का भाव और शील भाव को विषय-सुख की अभिलाषा का भाव आसानी से भेद डालता
है।
इस प्रकार, वास्तव में तो परिणामों को पलट देने का ही काम करना है। ऐसा
कहा जाता है कि ‘क्रोध के परिणाम को क्षमा के
परिणाम से भेदो।’ क्षमा के परिणाम से क्रोध के
परिणाम को भेदने का अर्थ क्या है? परिणामों में से क्रोधभाव का
प्रभाव हटा देना और क्षमा भाव का प्रभाव पैदा कर देना। क्रोध के परिणाम को भेदने
के लिए अथवा क्रोध पर विजय पाने के लिए ‘क्रोध कितना बुरा है, कितना अनिष्टकारी है’,
इत्यादि विचार करना
चाहिए और क्षमाभाव कितना सुखदायी है’,
इत्यादि क्षमा संबंधी
विचार करना चाहिए। ऐसा विचार करते-करते क्रोध का भाव टलता जाता है और क्षमा का भाव
बढता जाता है। इसे ‘क्रोध के परिणाम को क्षमा के
परिणाम से भेदना’ कहा जाता है।-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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