बुधवार, 19 दिसंबर 2012

सम्यग्दर्शन के योग से प्रकट होने वाले लक्षण


सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त पुण्यात्मा ऐसे उपशांतभाव को प्राप्त करता है कि उसके योग में वह कैसे भी संयोगों में अपने अपराधी के प्रति भी क्रोध नहीं करता। अपना चाहे जितना गम्भीर अपराध किसी ने किया हो, तो भी उसका बुरा होऐसा विचार तक उसके हृदय में पैदा नहीं होता। उसे कर्मों के स्वरूप का ज्ञान होता है और कर्मों का विपाक कितना अशुभ होता है, यह भी वह जानता है; इसलिए अपने अपराधी के प्रति भी वह क्षमाशील रह सकता है।

सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त पुण्यात्मा का संवेग भी अनुपम कोटि का होता है। उसका अंतर यदि प्रार्थना करता है, तो एक मात्र मोक्ष के लिए ही प्रार्थना करता है। केवल मोक्ष और मोक्ष के साधनों को छोडकर दूसरी कोई वस्तु उसे प्रार्थना करने योग्य लगती ही नहीं। मोक्ष का सुख ही एक मात्र सच्चा सुख है और इसको छोडकर कोई भी सुख, सुख नहीं, अपितु दुःखरूप है, ऐसी उसकी दृढ मान्यता होती है। केवल मनुष्य-लोक के सुखों को ही वह दुःखरूप मानता हो, ऐसा नहीं; अपितु इन्द्र आदि देवलोक के सुखों को भी वह दुःखरूप ही मानता है। उसकी मान्यता ऐसी होती है कि विषय और कषाय से जनित सुख, सुख ही नहीं हैं।

सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त आत्मा संसार से निर्वेद पाया हुआ होता है। संसार की चार गतियों में से किसी भी गति में रहने की इच्छा उसे नहीं होती। केवल नरक गति या तिर्यंच गति में रहना ही उसे दुःखरूप लगता हो, ऐसा नहीं है; अपितु मनुष्य गति और स्वर्ग (देव)-गति में भी रहना उसे असह्य लगता है। संसार के प्रति उसे ममत्व नहीं होता। ममत्व के विषवेग से वह रहित होता है और इस कारण वह पंचम गति-मोक्षगति के अतिरिक्त और किसी गति की इच्छा ही नहीं करता।

सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त आत्मा की अनुकम्पा भी असाधारण कोटि की होती है। वह भयंकर भवसागर में दुःख से पीड़ित प्राणियों के समूह को देखकर स्व-पर के भेद बिना, अपनी शक्ति के अनुसार द्रव्य और भाव से उन पर अनुकम्पा करने वाला होता है। उसका आस्तिक्य भी ऐसा होता है कि भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा है, वही सत्य है और वही निःशंक है।उसकी यह मान्यता शंका और कांक्षादि दोषों से भी रहित होती है।

वह पुण्यात्मा अपने कर्मों के तथाविध क्षयोपशम भाव के योग से ऐसा उपशांत संवेगयुक्त, निर्वेदवाला, अनुकम्पाशील और आस्तिक बन जाता है कि उससे वह मोहनीय कर्म के योग से होने वाली वेदना से रहित दशा का अनुभव करने वाला बनता है। जैसे व्याधि की क्षीणता से रोगों की वेदना का अंत होता है, वैसे सम्यग्दृष्टि आत्मा भी भव दुःख की वेदना से रहित बन जाता है। सम्यग्दर्शन गुण के योग से आत्मा में समता भाव प्रकट हो जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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