गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

सम्यग्दृष्टि जीव प्रशम भाव वाला होता है


सम्यक्त्व, आत्मा का एक सुंदर परिणाम है। आत्मा का यह शुभ परिणाम विशिष्ट कोटि के प्रशमादि गुणों को प्रकट करने वाला होता है। जैसे धूम अग्नि का लिंग है, वैसे प्रशम आदि सम्यक्त्व के लिंग हैं। जहां अग्नि होती है, वहां धूम होता ही है, ऐसा नियम नहीं, परन्तु जहां धुंआ होता है, वहां अग्नि होती ही है, ऐसा नियम है। धूम न हो और अग्नि हो, ऐसा हो सकता है, परन्तु धूम हो और अग्नि न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसी तरह जहां-जहां सम्यक्त्व होता है, वहां-वहां प्रशमादि स्वरूप उसका लिंग हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है; परन्तु जहां-जहां सम्यक्त्व के सद्भाव में ही पैदा हो सकने वाले उच्च प्रकार के प्रशमादि होते हैं, वहां नियम से सम्यक्त्व होता ही है। इसी तरह, यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि धूम प्रकट हो ऐसी सामग्री के योग होने के साथ ही अग्नि धूम को प्रकट किए बिना नहीं रहती, वैसे सम्यक्त्व गुण तथाविध सामग्री के योग में आत्मा में प्रशमादि सम्बंधी शुभ परिणामों को अवश्य उत्पन्न करता है। सम्यक्त्व होते हुए भी प्रशमादि न हों तो ऐसा ही मानना पडेगा कि तथाविध सामग्री का योग नहीं हुआ और विपरीत सामग्री का योग है, इसलिए प्रशमादि प्रतीत नहीं होते; अनुकूलता मिलने पर प्रशमादि प्रकट हो सके, ऐसी योग्यता तो इस आत्मा में प्रकटतः है ही।

शम का अर्थ है शमनअथवा शांत होना। प्रकृष्ट शमन अथवा शांतभाव को प्रशम कहा जाता है। वास्तविक रूप से तो, अनंतानुबंधी कषाय जहां तक जोरदार विपाकोदय वाले होते हैं, तब तक आत्मा में प्रशम का सच्चा भाव प्रकट नहीं होता। जब अनंतानुबंधी कषाय का विपाकोदय मंद कोटि का होता है, तब प्रशम का भाव अमुक अंश में प्रकटे, यह संभवित है। अनंतानुबंधी कषायों के उदय की जैसे-जैसे मंदता होती है, वैसे-वैसे प्रशम का भाव वृद्धि को प्राप्त कर सकता है।

कषाय की परिणति को लेकर जीव जब इस प्रकार का विचार करता है कि कषाय से कैसे-कैसे कटु फलों की प्राप्ति होती है’, तब इस प्रकार की विचारणा से उसमें प्रशम का भाव भी पैदा हो सकता है और वह कषाय की वृद्धि को भी प्राप्त कर सकता है। क्रोध का आवेग और विषयों की तृष्णा का शमन हो, इसे भी शम कहते हैं। जीवाजीवादि तत्त्वों के स्वरूप के सम्बंध में चलती हुई विविध बातों का विचार करके, आत्मा उसका परीक्षापूर्वक सच्चा निर्णय करे कि जीवाजीवादि तत्त्वों का स्वरूप ऐसा ही हो सकता है, अतः मिथ्या अभिनिवेशरूप दुराग्रह को छोडकर आत्मा सत्य तत्त्व-स्वरूप का आग्रही बने, इसे भी शम कहते हैं। इस प्रकार का प्रशम, सम्यक्त्व का वास्तविक कोटि का लक्षण है। क्योंकि जो जीव सम्यक्त्व प्राप्त है, वही जीव परीक्षापूर्वक सत्य तत्त्व स्वरूप का निर्णय कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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