रविवार, 9 दिसंबर 2012

कर्मस्थिति की लघुता रूप भाग्यशालिता


आपको अपने पुण्योदय के योग से जैनकुल मिल गया है, यह आपकी सबसे बडी भाग्यशालिता है। जैन कुल में जन्म लेने के कारण आपको देव के रूप में वीतराग परमात्मा को पूजने का अवसर मिल गया है; गुरु के रूप में सेवा के लिए आपको निर्ग्रन्थ सद्गुरुओं का योग मिल गया है और धर्माचरण के लिए श्री जिनशासन द्वारा उपदिष्ट धर्म का योग आपको मिला गया है। आपको यह सब मिल गया है, इससे यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आप ग्रंथिदेश पर तो अवश्य पहुंच चुके हैं। आप में से कोई-कोई चौथे गुणस्थानक को और कोई पांचवें गुणस्थानक को भी पाए हुए हों, यह सम्भव है। आप चौथे गुणस्थानक या पांचवें गुणस्थानक को पाए हुए नहीं ही है, ऐसा कहने का आशय नहीं है। जो कोई चौथे या पांचवें गुणस्थानक को प्राप्त किए हुए हों, वे अधिक भाग्यशाली हैं। परन्तु आप में से जो कोई चौथे या पांचवें गुणस्थान पर पहुंचे हुए नहीं हैं, वे भी ग्रंथिदेश पर तो अवश्य पहुंचे हुए हैं।

आप सब में से एक जीव ऐसा नहीं है, जिसके लिए यह कहा जा सके कि यह ग्रंथिदेश पर आया हुआ नहीं है।यह भी भाग्यशालिता है। किस तरह? एक तो यह कि आप में से किसी का भी कोई भी कर्म एक कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण स्थिति का या इससे अधिक स्थिति का नहीं है। अर्थात् आयुष्यकर्म को छोडकर सातों कर्मों की इससे जो अधिक स्थिति है, वह तो नियमतः क्षीण हो चुकी है। दूसरी भाग्यशालिता यह है कि जैसे कर्म स्थिति लघु हो चुकी है, वैसे जो नवीन कर्म का संचय होता है, वह भी एक कोटाकोटी सागरोपम या इससे अधिक स्थिति का नहीं ही होता, बल्कि इससे कम स्थिति का ही होता है। इससे यह भी सूचित होता है कि आप सब में इतनी कषाय मंदता भी आ चुकी है; और यह तीसरी भाग्यशालिता है।

प्रथम गुणस्थानक में रहे हुए सब जीवों के कषाय अनंतानुबंधी की कोटि के ही होते हैं, परन्तु उनमें भी तीव्रता और मंदता की तरतमता तो होती ही है। यदि अनंतानुबंधी कषाय मंदता को प्राप्त न हों तो नए संचित होने वाले ज्ञानावरणीयादि कर्म लघुस्थिति वाले कैसे बन सकते हैं? कर्मों के स्थितिबंध और रसबंध में क्रमशः कषायों और लेश्याओं का प्राधान्य होता है। आप श्री जिनशासन द्वारा उपदिष्ट श्रुतधर्म और चारित्र धर्म की द्रव्य से भी अमुक अंश में जो आचरणा कर सकते हैं, इससे ऐसा सिद्ध होता है कि एक कोटाकोटी सागरोपम से कुछ न्यून स्थिति से अधिक स्थिति वाला कोई भी कर्म आप उपार्जित नहीं करते। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आपके कषाय भी इतनी मंदता को अवश्य पाए हुए हैं। जैन कुल मिले बिना ऐसी स्थिति प्राप्त होना, प्रायः असंभव है। क्या आप ऐसा महसूस करते हैं? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें