शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

गांधी से हुआ टकराव (3)


सन् 1920 के आसपास के ही काल में मुनिश्री रामविजयजी के आत्मधर्म और गांधीजी के तथाकथित राष्ट्रधर्म के मध्य वैचारिक संघर्ष चल रहा था, उस समय पूरे देश में गांधीवाद की एक जबरदस्त लहर आकार ले रही थी। धारा में बहने वाले कई सुविधावादी साधु खुलेआम जैन साधु-साध्वियों से भी चरखा कातने और सत्याग्रह में शामिल होने की वकालत करते थे, उस समय मुनिश्री ने इसका प्रतिकार कर जैन साधुओं को चरखा कातने और साध्वियों को नर्स बनने से रोका था, ऐसा अनेक अनुभवी लोगों का मत है।

उस समय में अहमदाबाद के भद्रकाली मन्दिर में बकरे की बलि चढाई जाती थी। मुनिश्री को जब इस बात का पता चला तो पहले तो उन्होंने अपने गुरुजी के साथ मन्दिर जाकर पुजारी को समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन पुजारी के नहीं मानने पर उन्होंने बलि-प्रथा के खिलाफ प्रवचन देना शुरू किया और उनके प्रवचनों से ऐसा जनजागरण हुआ, ऐसा जनसैलाब उमडा कि मन्दिर से बकरे को छुडवा लिया और हमेशा-हमेशा के लिए वहां बकरे का वध बन्द हो गया।

इस बात का पता जब गांधीजी को चला तो उन्होंने दूसरे पक्ष का समर्थन हांसिल करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के तहत बलि का समर्थन किया। इससे वे एक तीर में दो शिकार करना चाहते थे। मन्दिर के पुजारी और बलि चढाने वाले लोगों का समर्थन प्राप्त करना और मुनिश्री को नीचा दिखाना। इसके लिए उन्होंने अपने अखबार नवजीवनमें अहिंसा की गलत ढंग से व्याख्या कर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की, लेकिन गांधीजी इसमें सफल नहीं हुए।

उन्होंने 7 नवम्बर, 1920 के अपने नवजीवन अखबार में लिखा कि बकरे को बचाकर लोगों को दुःखी किया गया है, पुजारी पर जोर-जबरदस्ती कर बकरे को बचाया गया है, बकरे को बचाने में जोर-जबरदस्ती क्यों?’ उन्होंने बलि के खिलाफ हुए आन्दोलन की आलोचना की। न केवल अपने अखबार में, बल्कि सार्वजनिक सभाओं में भी। लेकिन, यह पासा गांधीजी के खिलाफ ही पडा और उनका दोहरा चेहरा उजागर हुआ। फिर भी गांधीजी यहीं नहीं रुके।

अहमदाबाद के जैन श्रेष्ठी और केलिको मिल के करोडपति मालिक सेठ अम्बालाल साराभाई जो गांधीजी को उनके आंदोलन में आर्थिक मदद भी कर रहे थे, उन्होंने अपने मिल में पर्युषण के दिनों में एक साथ लगभग 60 कुत्तों को घेरकर कमरे में बन्द कर दिया और फिर उन्हें गोली मार कर हत्या करवा दी। इस घटना की सर्वत्र निंदा-भर्त्सना हो रही थी, वहीं गांधीजी ने सेठ से अपने रिश्तों की खातिर और मुनिश्री को आघात पहुंचाने के लिए कुत्तों की हत्या का समर्थन कर दिया। उन्होंने नवजीवन में बहुत ही लचर और हल्की भाषा में लेख लिखकर फिर जीवदया और अहिंसा की गलत व्याख्याएं प्रस्तुत कर जैन धर्म की खिल्ली उडाने का प्रयास किया, लेकिन यह दांव भी उनका उलटा पडा और समूचा जैन समाज इससे नाराज हुआ।

गांधीजी ने लिखा कि जो कुत्ते शहर में भटक रहे हैं, उनमें से कुछ पागल हैं और वे दूसरों को काटते हैं, उन्हें मारदेना चाहिए। भटकने वाले गाय-भैंसों के लिए ही हम व्यवस्था नहीं कर पाते तो कुत्तों के लिए पिंजरापोल की व्यवस्था करने का विचार ही भयंकर लगता है। पागल कुत्ते को भोजन देना महापाप है।आदि, आदि.....। उन्होंने जीवदया का मखौल उडाते हुए लिखा कि हमने बंदरों को भोजन देकर उन्हें जंगल से शहरवासी बनाया। वे शहर में आकर लोगों को परेशान करते हैं। मेरे आश्रम के पास गुजरने वाले व्यक्ति को बंदर को खाद्य पदार्थ देते हुए मैंने देखा है। मैंने कहा कि खाद्य पदार्थ मत दो, आप हिंसा कर रहे हैं, परन्तु उसने मेरी बात नहीं सुनी। मेरे आश्रम में एक सांप निकल आया, जिसे मेरे भतीजे ने मार डाला, मैंने कहा तूने ठीक किया।इस तरह गांधीजी ने अहिंसा और जीवदया को लेकर बहुत बेहूदा प्रलाप किया।

इसके विरोध में मुनिश्री के मार्गदर्शन में श्री जीवदया प्रचारिणी महासभा का गठन हुआ और इस महासभा द्वारा पेम्पलेट (हेण्डबिल, पर्चे) प्रकाशित किए गए। अंत में परेशान होकर गांधीजी को नवजीवन अखबार में हिंसा-अहिंसा के विवेक-विवेचन-व्याख्या पर 17 सप्ताह तक चलने वाली लेखमाला चार सप्ताह में ही रोकनी पडी। जैन शास्त्रों में वर्णित अहिंसा के सिद्धान्तों की यह सबसे बडी विजय थी।

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