शनिवार, 22 दिसंबर 2012

त्रिभुवन कैसे बने जैन शासनसिरताज ?


कोई व्यक्ति जन्म से ही महान नहीं होता, परन्तु उसकी सोच, बुद्धि, जानकारी, चतुराई (विवेक) और पुण्य-पुरुषार्थ उसे महान बनाता है, उसका तप-त्याग-संयम और कथनी-करनी की एकरूपता उसे महान बनाती है। 96 वर्ष के जीवनकाल में 121 प्रभावशाली शिष्यों के गुरु बनने वाले श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ के सबसे वरिष्ठ जैनाचार्य जैन शासन सिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के जीवनक्रम को 20 वीं सदी के जैन धर्म की एक महान घटना माननी चाहिए। 17 वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण करनेवाले इस जैनाचार्य ने जीवन के 79 वर्ष तक भारत में घूमकर बगैर किसी स्वार्थ के सद्धर्म का प्रचार किया। आचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वर जी के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि वे 20 वीं सदी के सबसे विवादास्पद होने के बावजूद सबसे अधिक मान्य और आदरणीय जैनाचार्य थे। बडोदरा के निकट के पादरा गांव के निवासी अनाथ त्रिभुवन से वे किस तरह तपागच्छाधिपति बने, जैन शासनसिरताज बने, शून्य से शिखर तक पहुंचने की यह एक लम्बी कहानी है। आइए, देखें-

कैसे बीता बचपन? (1)

खंभात के पास स्थित दहेवाण गांव त्रिभुवन का ननिहाल था, यहीं पर विक्रम संवत् 1952 की शास्त्रीय मिति फाल्गुन वदी 4 (हिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित पंचांगानुसार चैत्र कृष्णा चतुर्थी) तदनुसार दिनांक 3 मार्च, 1896 को शुभ नक्षत्र में, श्री पार्श्वनाथ भगवान के च्यवन कल्याणक एवं केवलज्ञान कल्याणक के शुभ दिन एक तेजस्वी पुत्ररत्न का जन्म हुआ। इस तेजस्वी बालक का नाम त्रिभुवन रखा गया। त्रिभुवन को लेकर प्रसवकाल के लिए मां के घर (पीहर) गई उनकी मां अपने वतन (ससुराल) पादरा वापस आई तो पता चला कि त्रिभुवन के पिता छोटालाल जी का प्लेग की महामारी में स्वर्गवास हो गया है। त्रिभुवन के भाग्य में पिता का मुंह देखना नहीं लिखा था। सात वर्ष की उम्र में माता समरथबहन का भी स्वर्गवास हो गया और बालक त्रिभुवन अनाथ जैसा हो गया।

अब उसके लालन-पालन की जिम्मेदारी पिता की दादी (त्रिभुवन की पडदादी) रतनबा के सिर आई, क्योंकि दादा-दादी का स्वर्गवास भी पहले ही हो गया था। एक समय इस परिवार में 150 सदस्य एकसाथ रहते थे, किन्तु वि.सं. 1950 के आसपास प्लेग जैसी महामारी फैलने से एक के बाद एक सभी स्वर्ग सिधार गए, परिवार में केवल सात-आठ व्यक्ति ही बचे थे। पडदादी रतनबा की उम्र उस समय 80 वर्ष की थी। अत्यंत धर्मनिष्ठ और पापभीरू स्वभावी रतन बा ने त्रिभुवन के कान में बचपन से ही फूंक मारदी कि बच्चे तुम्हें बडे होकर साधु बनना है। रतनबा की सतत प्रेरणा से त्रिभुवन ने भी मन ही मन दीक्षा लेने का दृढ निश्चय कर लिया।

मात्र चार वर्ष की उम्र में ही रतनबा त्रिभुवन को पास बिठाकर सामायिक और प्रतिक्रमण कराती। कभी बालक त्रिभुवन को चालू प्रतिक्रमण में नींद सताती तो वह कटासणा (आसन) पर ही सोने लगता। सात वर्ष की आयु में त्रिभुवन को पादरा की सरकारी शाला में प्रविष्ट किया गया। जहां उन्होंने गुजराती में सातवीं कक्षा तक अध्ययन किया। व्यावहारिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा तो मुख्यरूप से प्रदान की ही जाती थी। नौ वर्ष की आयु तक तो उन्होंने पांच प्रतिक्रमण, जीव विचार आदि का अध्ययन कर लिया था। इतना ही नहीं, नौ वर्ष की आयु से वे दोनों समय प्रतिक्रमण करते थे और उबला हुआ गरम पानी पीते थे। उन्हें धार्मिक अध्ययन कराने वाले शिक्षक श्री उजमशी भाई भी अत्यंत श्रद्धालु एवं ज्ञानी थे। जिन्होंने इन्हें सम्यक्त्व की सज्झाय और उसका अर्थ इतना उत्तम प्रकार से समझाया था कि पाठशाला की परीक्षा में वे प्रथम आए थे। वे उजमशी भाई शिक्षक भी उत्तम आत्मा थे, जिन्होंने बाद में स्वयं दीक्षा अंगीकार करली थी और नीतिसूरीश्वर जी म.सा. के समुदाय में पू.आचार्य श्री उदयसूरी जी महाराज के नाम से उत्तम आराधना कर के स्वर्गवासी हुए थे।

त्रिभुवन का अधिकांश समय उपाश्रय में ही बीतता। गांव में किसी भी साधु-साध्वीजी का आगमन होने पर त्रिभुवन उनको लेने जाता, छोडने जाता और गोचरी में भी साथ घूमता। इस तरह अनेक साधुओं की आँखों में भी त्रिभुवन बस गया। सुसाधु को किया गया वंदन भव-निस्तारक होता है और कुसाधु को किया गया वंदन भव-वर्द्धक बनता है। अतः गांव में कोई एकल विहारी अथवा अनजान साधु आता तो यह विवेकी बालक गोचरी-पानी आदि से उनकी भक्ति अवश्य करता, परन्तु उनको वंदन कदापि नहीं करता। जब उसे उक्त साधु के विषय में सत्य-तथ्य ज्ञात हो जाते कि ये तो सुविहित और मार्गस्थ हैं, तब वह उनको वंदन करता। (क्रमश:)

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