अनादिकाल से जीव जिस
कर्मसंतान से वेष्टित है, वह कर्म आठ प्रकार का है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय; ये कर्म के आठ प्रकार हैं। इन आठ प्रकार के कर्मों के बंध
के कारण/निमित्त छह हैं। ये छः निमित्त हैं- 1.
मिथ्यात्व, 2. अज्ञान, 3. अविरति, 4. प्रमाद, 5. कषाय और 6. योग। इनकी प्रगाढता,
असर (प्रभाव) एवं क्रम
में भी एक विशेषता है। मिथ्यात्व को पहले नम्बर पर रखा गया है। मिथ्यात्व सबसे
प्रबल है, सबसे ताकतवर है,
इसलिए यह पहले नम्बर
पर है। अज्ञान दूसरे नम्बर पर है।
कई शास्त्रकारों ने अज्ञान को
भी मिथ्यात्व में ही समाहित किया है। आचार्य उमास्वातिजी ने ‘तत्त्वार्थ सूत्र’
में जिनवाणी का उल्लेख
करते हुए लिखा है कि ‘मिथ्या दर्शनाविरति प्रमाद
कषाययोगा बंध हेतवः।’ इन पांच कारणों से कर्मों का
बंध होता है। यहां अज्ञान को मिथ्यात्व में ही लिया गया है। उनके अनुसार मिथ्यात्व
हटा कि अज्ञान का अंधकार भी दूर हो जाता है। इसके बाद अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, जो क्रमशः हल्के होते जाते हैं। यदि इन्हें ठीक से समझने के
लिए इन क्रमांकों को एक के आगे एक इस ढंग से रखें तो 123456 संख्या बन जाएगी और इनकी प्रगाढता, प्रबलता और प्रभाव हमें समझ में आ जाएगा। मिथ्यात्व पहले
नम्बर पर है। इसका मतलब कर्मबंध का मूल और प्रभावी कारण मिथ्यात्व ही है।
मिथ्यात्व को जीवन से हटाया और सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया तो शेष कारणों की शक्ति
घट जाएगी। 123456 इस संख्या में से मिथ्यात्व
का क्रमांक यदि निकाल दिया जाए तो संख्या बचेगी 23456, फिर अज्ञान का तिमिर हटते ही संख्या 3456 रह जाएगी।
आगे चलकर यदि व्रत-नियम
अंगीकार कर लिए, अविरति को नष्ट कर दिया तो
अविरति का क्रमांक 3 नष्ट हो जाएगा और संख्या
बचेगी सिर्फ 456, इस प्रकार हम कर्मबंध का
एक-एक कारण पूर्वापर नष्ट करते रहेंगे तो हमारे कर्मबंधों की तीव्रता बडे भारी
अनुपात में कम होती चली जाएगी। प्रमाद हट जाए,
कषाय हट जाए तो
मन-वचन-काया के योगों से होने वाला कर्मबंध बहुत ही क्षीण होगा। मिथ्यात्व आदि
निमित्तों से जीव को प्रायः अपने-अपने परिणाम द्वारा कर्म का बंध होता है।
मिथ्यात्व आदि के निमित्त से एक परिणाम द्वारा संचित होने वाला कर्मबंध उत्कृष्ट
स्थिति वाला भी हो सकता है और जघन्य स्थिति वाला भी हो सकता है। तीव्र अशुभ परिणाम
से जनित कर्म उत्कृष्ट स्थिति वाला होता है। जीव जब इन आठों कर्मों की उत्कृष्ट
स्थिति में होता है, तब तो वह ऐसा क्लिष्ट परिणाम
वाला होता है कि वह सद्धर्म को प्राप्त कर ही नहीं सकता। सद्धर्म को प्राप्त करने
योग्य स्थिति तो कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद ही प्राप्त हो
सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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