शनिवार, 15 दिसंबर 2012

विषय-कषाय की अनुकूलता का राग


अपूर्वकरण को प्रकट करने के लिए जीव को विषय की अनुकूलता और कषाय की अनुकूलता का राग कितना अधिक बुरा है, वह राग कितना हानिकारक है, इसका विचार करना चाहिए। यदि जीव विचार करता है तो उसे अनुभव होगा कि हिंसादिक पापों का मूल जीव की विषय और कषाय के प्रति अनुकूलता का राग है।जीव प्रायः इसीलिए पाप का आचरण करते हैं और प्रायः इसीलिए दुःख सहन करते हैं।

आप हिंसादिक जो-जो पाप करते हैं, उन सब को स्मृति में लाकर विचार करें कि आपने जो इनका आचरण किया और उन्हें आचरने की आपकी इच्छा हुई, वह क्यों हुई? यदि आप समझपूर्वक गंभीरता और विवेक से विचार करेंगे तो आपको यही अनुभव होगा कि यदि मुझ में विषय-कषाय की अनुकूलता का राग न होता तो मैं इनमें से कोई भी पाप करने की इच्छा नहीं करता या इनमें से किसी पाप का आचरण नहीं करता।

इसी तरह, आप दुःख भी सहन करते हैं। आप सोचें कि आपको दुःख सहना अच्छा लगता है? नहीं! वस्तुतः आपको दुःख सहन करना अच्छा नहीं लगता, परन्तु विषय-कषाय की अनुकूलता के राग के कारण और उस राग की सफलता के कारण आपको दुःख सहना भी अच्छा लगता है। आप में जो द्वेष-भाव है, उसका भी कारण क्या है? विषय-कषाय की अनुकूलता के प्रति आपका राग ही उसका भी कारण है। विषय-कषाय की अनुकूलता का राग पाप कराता है, दुःख सहन करने को मजबूर करता है और किए हुए पाप के परिणाम से भी जीव दुःखी होता है।

विषय-कषाय की अनुकूलता के ऐसे राग पर और इस राग के योग से प्रकट होने वाले द्वेष पर नफरत नहीं आती है? ऐसा अनुभव हो जाना चाहिए कि यह राग ही मेरा सबसे बडा शत्रु है।ऐसा सुंदर विचार आ जाए और ऐसा लगने लगे कि विषय-कषाय की अनुकूलता का राग छोडने योग्य ही है’, तो अपूर्वकरण दूर नहीं रह सकता।

ऐसा सुंदर विचार पैदा होने से ऐसा परिणाम पैदा हुए बिना नहीं रह सकता, जिसके द्वारा राग-द्वेष की गाढता छिन्न-भिन्न हो जाए। जीव में ऐसा परिणाम भी पैदा हो जाता है कि मुझे अब ऐसी दशा प्राप्त करनी चाहिए, जिससे मुझ में राग भी न रहे और द्वेष भी न रहे।इसमें से वीतराग बनूं ऐसी भावना पैदा होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को पूर्व के अनंतकाल पर्यंत में भी ऐसे सुंदर परिणाम की प्राप्ति नहीं हुई, ऐसे विशिष्ट कोटि के सुंदर परिणाम को अपूर्वकरण कहा जाता है। राग और द्वेष के गाढ परिणाम रूप ग्रंथि को भेदने के लिए यही परिणाम समर्थ बनता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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