शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग
जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक
भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित
सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग
सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में
जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक,
पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा, बचपन से ही जिनकी बुद्धि, प्रतिभा ऐसी प्रखर थी
कि उस समय के एक जैनाचार्य ने उन्हें दीक्षा देने की तत्परता बताते हुए यहां तक कह
दिया था कि यदि तुम मेरे पास दीक्षा लोगे तो तुम्हें जल्द ही आचार्य पदवी मिलेगी, परन्तु उस समय तरुण
त्रिभुवन भी इतना निस्पृही था कि उसने तुरन्त इन्कार कर दिया कि ‘मैं पदवी लेने के लिए
दीक्षा लेना नहीं चाहता। दीक्षा लूंगा तो जिन आज्ञा का अनुसरण करने के लिए, आत्म-कल्याण के लिए।’
मन ही मन जिनाज्ञा के अनुरूप सुगुरु की खोज त्रिभुवन
की जारी थी। ऐसे गुरु की खोज, जिनके पास संयम लेकर वास्तव में आत्म-कल्याण किया जा सके, समाज में चरित्र
निर्माण, संस्कार और आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की सुचिता व संरक्षण के लिए अभियान चलाया जा सके। इसके लिए वे
अपने मन में तानाबाना बुनते रहे। दीक्षा लेना निश्चित था, लेकिन गुरु की तलाश
जारी थी। उसी अवधि में ही विद्वान पंन्यासश्री दानविजयजी म.सा. का पादरा में
चातुर्मास हुआ। उनके सम्पर्क में आते ही त्रिभुवन को प्रतीत हो गया कि दीक्षा लेनी
है तो यहीं लेनी है, परन्तु इसमें एक बाधा थी। जिस पडदादी रतनबा ने बचपन से त्रिभुवन को प्रेरित
किया था, वे भी दीक्षा के लिए सहमत नहीं हुई। अपने प्रपौत्र के प्रति अत्यंत मोह उनको
रोक रहा था।
रतनबा ने ऐसी शर्त रखी कि ‘मेरे जीवित रहने तक
तुम्हें दीक्षा नहीं लेनी है’। त्रिभुवन ने अपनी पालनहार पडदादी रतनबा की बात मुनिश्री के समक्ष रखी। इस
बात को सुनकर मुनिश्री प्रेमविजयजी ने त्रिभुवन से एक सवाल किया कि ‘तुम्हें खबर है कि
पहले किसकी मृत्यु होगी’? यह सवाल त्रिभुवन के हृदय में चुभ गया और वह दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गया।
प्रेरणादाता पंन्यासश्री दानविजयजी की सलाह से ही त्रिभुवन मुनिश्री प्रेमविजयजी
का शिष्य बना। परन्तु, जैसे ही त्रिभुवन ने दीक्षा लेने के निर्णय की घोषणा की, उनके खिलाफ परिवार में
तूफान खडा हो गया। 150 लोगों का भरापूरा परिवार पहले ही प्लेग जैसी महामारी की भेंट चढचुका था और
गिनती के सदस्य बचे थे, ऐसे में परिवार का एक होनहार बालक दीक्षा लेने की बात करे, यह किसी को गंवारा
नहीं था। निकट-दूर के सभी रिश्तेदार उनके खिलाफ हो गए और दीक्षा का विरोध करने
लगे।
17 वर्ष के त्रिभुवन के
दीक्षा लेने के निर्णय की घोषणा किए जाने के बाद भी उन्हें येनकेनप्रकारेण निर्णय
से विचलित करने के सभी प्रयास परिवार वालों ने करके देखे। उनके मामा ने चार जोडी
नए कपडे सिलवाकर देते हुए कहा कि इन कपडों के फटने तक आपको दीक्षा नहीं लेनी है।
त्रिभुवन ने जवाब दिया कि यदि कपडा फाडना ही हो तो अभी कैंची से फाड देता हूं।
उनके चाचा ने कहा कि यदि तुम दीक्षा नहीं लोगे तो मैं तुम्हें अपनी शानदार ढंग से
चलरही फर्म का भागीदार बना दूंगा। त्रिभुवन ने कहा- भगवान महावीर द्वारा स्थापित
फर्म का मालिक होने का मौका मिलता हो तो आपका भागीदार बनने में किसकी रुचि होगी?
(क्रमश:)
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