बुधवार, 12 दिसंबर 2012

धर्म-श्रवण मोक्ष के उपाय को जानने के लिए


जैन कुल में जन्म लेने वाले आप सब कम से कम ग्रंथिदेश पर तो आ ही चुके हैं और यहां आने वाले धर्मश्रवण के योग को भी प्राप्त किए हुए हैं। अब विचार तो यही करना है कि यहां जो कोई श्रवण करने के लिए आता है, वह धर्म का ही श्रवण करने हेतु आता है या नहीं? श्रवण करने के लिए आने वाले धर्म के स्वरूपादि को जानने की इच्छा वाले हैं या नहीं? धर्म के ही स्वरूपादि को जानने की इच्छा, मोक्ष के उपाय के स्वरूपादि को जानने की इच्छा के रूप में पैदा हुई है या अन्य किसी आशय से यह इच्छा पैदा हुई है?

संसार की निर्गुणता का आपको अमुक अंश में भी सच्चा भाव हो गया है और आपको संसार के प्रति अरुचि का भाव प्रकट हो गया है, इस कारण आप में संसार से विपरीत मोक्ष मुझे मिले तो अच्छा’, ऐसी मोक्ष की रुचि उत्पन्न हुई है और इसी कारण आप अपनी उस रुचि को संतुष्ट करने के लिए संसार से छुडाने वाले और मोक्ष में पहुंचाने वाले धर्म को जानने की इच्छा वाले बने हैं तथा यहां श्रवण करने के लिए आते हैं, ऐसा यदि मैं मान लूं या ऐसा कोई यदि माने तो वह ठीक है क्या?

आपके सामने इस समय यह प्रश्न है कि आपको मोक्ष के उपाय का आचरण करना है और इसलिए आपको मोक्ष का उपाय जानना है, इस कारण आप यहां धर्म श्रवण करने आते हैं? या अन्य किसी कारण से आप यहां सुनने के लिए आते हैं? यहां श्रवण करने के लिए आप आते हैं, इसमें तो मोक्ष के उपाय के रूप में धर्म के स्वरूपादि को जानने का आशय भी हो सकता है, संसार के सुख की सिद्धि का आशय भी हो सकता है और गतानुगतिक रूप से आप आते हैं, ऐसा भी हो सकता है; तो आपका वास्तविक उद्देश्य क्या है?

मोक्ष के उपाय के रूप में, धर्म के स्वरूपादि को जानने की इच्छा में, उस उपाय को यथासंभव आचरण करने की इच्छा भी रही होती है। अतः आप जैसे-जैसे जानते जाते हैं, वैसे-वैसे अपने मोक्ष के लिए उसे आचरने का विचार और प्रयत्न भी आप करते होंगे न? जिसको जितना-जितना जानने को मिले, वह उतना-उतना आचरण भी कर सके, ऐसा नियम नहीं है और ऐसा नियम हो भी नहीं सकता। क्योंकि, जाने हुए को आचरण में उतारने के लिए अन्य भी बहुत प्रकार की सामग्री की अपेक्षा रहती है। परन्तु मोक्ष की रुचि वाले को मोक्ष का उपाय जैसे-जैसे ज्ञात होता है, वैसे-वैसे उस उपाय का आचरण करने की अभिलाषा तो होती ही है। पहले ऐसा विचार आता है कि यही आचरण करने लायक है और इससे विपरीत जो कुछ है, वह आचरण के योग्य नहीं, तो मुझसे जितने प्रमाण में संभव हो, उतने प्रमाण में मैं छोडने योग्य को छोडूं और आचरण करने योग्य का आचरण करूं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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