सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दीक्षा का घोर विरोध (3)


दीक्षा का घोर विरोध (3)

शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की दीक्षा के समय समाज में सब तरफ दीक्षा का घोर विरोध था.

तत्कालीन समाज में जहां बालक को यम को दे दो, लेकिन यति को न दो, ऐसी कहावत प्रचलित थी, वहां किसी की दीक्षा कितनी दुष्कर होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। उस समय पूरे समाज की मनोदश ऐसी थी कि दीक्षा लेकर साधु नहीं बना जा सकता। किसी भी साधु के किसी भी युवा को दीक्षा देने की बात करने पर मानो उसने कोई बडा गुनाह करने की तैयारी की हो, उस तरह से लोग उस पर टूट पडते थे। उस समय के समाज का ऐसा मानना था कि साधु कम उम्र के बच्चों पर जादू-टोना कर उन्हें साधु बना देते हैं। किसी भी व्यक्ति को दीक्षा देने को अपहरण जैसा अपराध माना जाता था। दीक्षा देनेवाले गुरुओं को लोग धिक्कार की नजर से देखते थे।

ऐसे वातावरण में त्रिभुवन जैसे तेजस्वी युवा ने दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की, यह परिवार और समाज में खलबली मचाने के लिए पर्याप्त था। दूसरी ओर उनके मामा ने बडोदरा के अखबारों में ऐसा विज्ञापन दिया कि त्रिभुवन को दीक्षा देनेवाले को कानूनी कार्रवाही के लिए तैयार रहना होगा। ऐसी स्पष्ट धमकी के बावजूद उस समय के पंन्यासश्री दानविजयजी और उनके शिष्य मुनिश्री प्रेमविजयजी ने त्रिभुवन को गुप्त रूप से दीक्षा देने का निश्चय किया।

भरुच से लगभग 30 मील दूर स्थित गांधार तीर्थ उस समय ब्रिटिश राज्य की सीमा में था। भरुच के पास स्थित बडोदरा में गायकवाडी राज्य था और वहां बालदीक्षा के विरूद्ध सख्त कानून लागू था। किसी युवक के नाबालिग होने और उसके माता-पिता अथवा पत्नी के विरोध करने पर उसे दीक्षा लेने के बाद भी घर वापस लौटने की घटनाएं घटित हो चुकी थी, इसलिए गायकवाडी राज्य की सीमा में दीक्षा देने में भारी जोखिम थी। इसलिए उक्त मुनि गायकवाडी राज्य की सीमा छोडकर ब्रिटिश सीमा में स्थित गांधार तीर्थ के सुनसान वातावरण में त्रिभुवन को दीक्षा के लिए लाए।

 यहीं पौष सुदी 13, वि.सं. 1969 को त्रिभुवन का मुनिश्री रामविजयजी में रूपान्तर हुआ। उनके गुरु मुनिश्री प्रेमविजयजी थे, परन्तु दीक्षा देने के लिए उनके स्थान पर मुनिश्री मंगलविजयजी आए थे। दीक्षाविधि ऐसे संयोगों में हुई कि पास के गांव से मुंडन के लिए बुलाए गए हजाम (नाई) के पहुंचने से पहले ही खुद मुनिश्री मंगलविजयजी ने आधा मुंडन कर दिया था।

उनकी दीक्षा में बार-बार पैदा हुई बाधाओं से मुनिश्री रामविजयजी ने मनोमन गांठ बांध ली थी कि दीक्षा के संबंध में लोगों के हृदय परिवर्तन की जरूरत है। साधु होने के कुछ ही वर्ष में उन्होंने काफी शास्त्राभ्यास कर लिया और व्याख्यान देने की शुरुआत की। लोग उनकी प्रवचनशैली के कायल हो गए। मुनिश्री रामविजयजी जहां भी प्रवचन करते, वहां भारी भीड जमा हो जाती। व्याख्यान में भी वे एक ही बात को अलग-अलग तरीके से समझाते कि संसार असार है, छोडने जैसा है और साधु बनने जैसा है। सर्वविरतिमय साधु जीवन के प्ररुपण के कारण समाज में अनेक प्रकार की तरंगें पैदा हुई। (क्रमश:)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें