गुरुवार, 3 मई 2012

जड का योग ही दुःख का मूल



इस दुनिया में मुख्यतया जड और चेतन ये दो तत्त्व विद्यमान हैं। दुनिया के सभी पदार्थ व प्राणियों का समावेश इन दो तत्त्वों में हो जाता है। कई वस्तुएं सिर्फ जड हैं, कई वस्तुएं सिर्फ चेतन हैं और कुछ वस्तुएं जड-चेतन के योग वाली हैं। बंगला, घर, पैसे आदि सिर्फ जड हैं। जड के संयोग से मुक्त बनकर निज स्वरूप को प्राप्त सिद्ध भगवंत सिर्फ चेतन हैं तथा मनुष्य, देव, नरक व तिर्यंच इन चार गतियों में और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करती हुई आत्माएं जड-चेतन के संयोग वाली है।

जड-चेतन के संयोग वाली आत्मा अपने जड-चेतन के संयोग को समझकर, जड के संयोग का नाश कर अपनी आत्मा के निर्मल स्वरूप को प्राप्त करे, इसके लिए ही धर्म का आयोजन है। धर्म के प्रवर्तकों ने धर्म की प्ररूपणा दुनियावी स्वार्थ की सिद्धि के लिए नहीं की है। दुनियावी प्राणियों के हित के लिए ही धर्म की प्ररूपणा की गई है। धर्म के प्रवर्तक-प्ररूपक तो राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त थे, अनंतज्ञान के स्वामी थे, इस कारण उन तारकों को अन्य किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं थी और हो भी नहीं सकती थी। उन तारकों ने धर्मशासन की स्थापना इच्छापूर्वक नहीं की है, बल्कि पूर्व भव में जो प्राणीमात्र के कल्याण की भावना की थी, उस भावना से उपार्जित महापुण्य के योग से वे तारक धर्म-शासन की स्थापना करते हैं, फिर भी उपचार से हम कह सकते हैं कि दुनिया के जीवों के एकांत कल्याण के लिए ही उन तारकों ने धर्मशासन की स्थापना की थी।

जैन शासन क्या है? चेतन और जड के यथार्थ स्वरूप को समझाकर आत्मा के साथ बने हुए अनादिकालीन जड संयोग से आत्मा को मुक्त बनाने का मार्ग बताने वाला शासन, जैन शासन है। दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति का एक मात्र उपाय भी यही है कि आत्मा के अनादिकालीन जड संयोग को दूर करना। दुनिया के अधिकांश लोग जड के योग (संयोग) में सुख मान रहे हैं। इस विसंगति के कारण विश्व की अनंत आत्माएं अनंतकाल से सुख की प्राप्ति के लिए अनेकविध प्रयत्न करने पर भी सुख नहीं पा रही हैं और दुःख से मुक्त नहीं हो रही हैं। आज दुनिया के लोग जड के आकर्षण में लुब्ध हो गए हैं, जबकि महापुरुष हमें आत्मा के प्रति आकर्षण पैदा करने का उपदेश दे रहे हैं। आत्मा के साथ जड की एकता ही दुःख का मूल है’, इस परम सत्य को समझे बिना वास्तविक धर्म की आराधना संभव नहीं है। जड का आकर्षण दूर किए बिना तथा आत्मा का आकर्षण पैदा किए बिना स्व-पर कल्याण की साधना शक्य नहीं है। यह सब जानने पर भी अधिकांश लोगों को आत्म-हित की चिन्ता नहीं होती है और जड का मोह दूर नहीं होता है, यह भयंकर अज्ञानता ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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