सोमवार, 7 मई 2012

सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वरूप


अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का आलंबन लेना चाहिए। सुदेव,सुगुरु और सुधर्म की शरण स्वीकार करने वाली आत्मा अंत में अवश्य परमात्म-पद प्राप्त करती है। जैसे-तैसे को देव मानने से मुक्ति का साध्य सिद्ध नहीं होगा। जिस देव के आलंबन से मुक्ति की साधना करनी हो, वे देव स्वयं मुक्त न हों तो मुक्ति की प्राप्ति कैसे संभव है? राग और द्वेष से ग्रस्त हों, उन्हें पूजने से वीतरागता कैसे प्राप्त होगी? भक्ति से तुष्ट होने वाले और विरोधी पर रुष्ट होने वाले तथा कामिनी आदि का परिग्रह रखने वाले सुदेव कैसे कहला सकते हैं? देव तो वीतराग हों, स्वयं बुद्ध हों और निरुपाधिक हों; वे ही मुमुक्षुओं के लिए आदर्श रूप हैं, क्योंकि शुद्ध आत्म-दशा पाने के लिए वैसा ही शुद्ध आलंबन चाहिए। परमात्मा किसी को मोक्ष देते नहीं हैं, किन्तु स्वयं मुक्तावस्था में होने के कारण मुमुक्षुओं के लिए ध्येयरूप हैं। उन तारकों ने मुक्त बनने का मार्ग बताया है, इस कारण वे मुक्ति-दाता भी कहलाते हैं।
वीतराग परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने में प्रत्यक्ष सहायक सदगुरु हैं। उनका भी आलंबन आवश्यक है। सदगुरु वे ही कहलाते हैं जो सुदेव की आज्ञा को समर्पित हों। सुदेव की आज्ञानुसार पांच महाव्रतों को धारण कर निर्ग्रंथ रूप में विचरण करने वाले हों और अपनी शक्ति अनुसार जगत में एक मात्र मोक्ष मार्ग का प्रचार करने वाले हों। हिंसादि पापों का सेवन करने वाले,पापोपदेश देने वाले, धन आदि का परिग्रह रखने वाले सदगुरु नहीं कहला सकते। त्यागी का दिखावा हो, किन्तु अर्थ-काम की वासना बढाने वाले हों, वे भी सदगुरु नहीं कहलाते।
इसी प्रकार इच्छानुसार मान लिए धर्म को सद्धर्म नहीं कहा जाता, बल्कि सुदेव निर्दिष्ट धर्म को सद्धर्म कहा जाता है। सद्धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र। सम्यग्दर्शन अर्थात् वीतराग परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट मोक्षमार्ग पर श्रद्धा। जड का योग ही दुःख का मूल है’, यह सम्यग्दर्शनी मानता है, इस कारण वह मनुष्य लोक और देवलोक के पौद्गलिक सुखों को भी तुच्छ मानकर उनकी इच्छा भी नहीं करता है। श्री वीतराग परमात्मा ने जड और चेतन का जो स्वरूप बताया है उसका तथा चेतन को जड से मुक्त बनाने के मार्ग का ज्ञान, सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने मात्र से मुक्ति नहीं मिल जाती है, साथ में सम्यग्चारित्र भी चाहिए, तभी धर्म का स्वरूप पूरा बनता है। सम्यग्चारित्र अर्थात् संसार का त्याग कर, आत्मा के मूल स्वभाव को प्रकट कराने वाले सद्नुष्ठानों का आचरण और उसके लिए देह की ममता का भी त्याग। देहरूपी पींजरे में आत्मा परतंत्र रही हुई है। जब तक देह का संयोग है, तब तक दुःख है। देह से रहित बनना ही मुक्त अवस्था है। सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का यही स्वरूप है और इनका आलम्बन ही मोक्ष का परम् सुख देने वाला है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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