बुधवार, 30 मई 2012

जिसके हृदय में श्रीनवकार, वह कैसे चाहे संसार?


श्री नवकार महामंत्र इतना अधिक महिमावंत है कि उसके स्मरण से समस्त दुःख भी दूर होते हैं और कर्मबंध का योग भी टल जाता है। इतना सुनने के पश्चात् लायक जीव के मन में ऐसा भाव नहीं जगेगा कि श्री नवकार मंत्र की इतनी महिमा किस कारण से है? उसके अक्षरों और उसके शब्दों में कौनसा सुन्दर तत्त्व समाया हुआ है? इस मंत्र द्वारा जिन्हें नमस्कार करते हैं, वे कौन हैं और कैसे हैं? इसके पदों में जिन-जिनको नमस्कार किया जाता है, वे कैसे और कितने उत्तम हैं कि जिनको पूरे मनोयोग से नमस्कार करने के प्रताप से सभी पापों का नाश हो जाता है? ऐसे विचार नवकार मंत्र की महिमा पर विश्वास करने वाले एवं उसे गाने वाले को आएंगे या नहीं? ‘मैं भी ऐसा बनूं’, इस प्रकार का भाव होगा या नहीं?

इस जन्म में श्री अरिहंत द्वारा कथित धर्म की प्राप्ति हो जाए तो मेरा परलोक सुन्दर बने और श्री अरिहंत द्वारा कथित धर्म की प्राप्ति से मेरी परलोक की परम्परा भी उत्तम बने। ऐसा करते-करते एक भव ऐसा भी आ जाए कि जिसमें मेरा समस्त पाप क्षय हो जाए। मैं कर्म के संयोग से सर्वथा रहित हो सकूं और मेरा शुद्ध स्वरूप प्रकट हो। मैं श्री सिद्ध पद का स्वामी बन जाऊं।ऐसी ही भावना नवकार मंत्र को जपने वाले में होती है न? यदि कोई नवकार मंत्र के स्मरण और शरण के फल के रूप में कुछ चाहे तो वह सर्व पापों का नाश ही चाहेगा न? अर्थात् वह सिद्ध पद की ही वांछा करेगा न?

श्री नवकार मंत्र द्वारा श्री अरिहंत को, श्री सिद्ध को एवं आचार्य-उपाध्याय-साधु को नमस्कार करने वाला एवं इन पांचों को किया गया नमस्कार सर्व पापों का क्षय करने वाला होता है, ऐसा समझने वाला जैन, इन पांचों के प्रति कितना समर्पित होगा? उसे चाहिए सिद्ध पद, मोक्ष, परमानंद, अक्षय सुख; इस हेतु वह श्री अरिहंत की आज्ञा का पालन करने के लक्ष्य वाला होता है। श्री अरिहंत की आज्ञा का पालन साधुपने में जैसा और जितना हो सकता है, वैसा और उतना गृहस्थावस्था में नहीं हो सकता, अतः साधुपना कब प्राप्त होगा’, ऐसा मनोरथ होता है। उसे संसार अच्छा नहीं लगता। वह समझता है कि सर्व पापों का नाश हुए बिना सिद्धत्व प्राप्त नहीं होगा एवं पाप के विनाश हेतु यदि कोई आराध्य हैं तो वे हैं श्री अरिहंत, श्री सिद्ध एवं श्री आचार्य-उपाध्याय-साधु। इन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करने वाले को क्या चाहिए? ऋद्धि तो उसे स्वाभाविक रूप से मिलेगी ही, किन्तु उसे वह नहीं चाहिए, उसे तो चाहिए सिद्धि और जो ऋद्धि में अपना लक्ष्य और भान नहीं भूला, अपना विवेक नहीं खोया, लक्ष्य के प्रति समर्पित रहा, उसे मिलेगी सिद्धि।

श्री नवकार की प्राप्ति हुई अर्थात् दुर्गति की समाप्ति एवं सदगति निश्चित, परन्तु वह किसके लिए? श्री नवकार जिसे सर्वस्व लगे उसके लिए, हर किसी के लिए नहीं। चौदहपूर्वी भी कहते हैं कि श्री नवकार में जो तत्त्व है, उसका सम्पूर्ण कथन संभव नहीं है, जो भी श्रेष्ठतम और आत्महितकर है, वह सभी श्री नवकार में है। इसलिए पूरे मनोयोग से नवकार जपने वाले को तो संसार खारा ही लगेगा और साधुत्व ही प्यारा लगेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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