रविवार, 27 मई 2012

धर्म-स्थान मोह को मारने के लिए हैं


श्री जिनमन्दिर, उपाश्रय, पाठशाला आदि धर्म-स्थान दुनियावी वस्तुओं का मोह दूर करने के लिए और आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण के लिए हैं। उन स्थानों में जाकर भी हम दुनियावी पदार्थों का राग बढाएं तो हम उन पवित्र स्थानों की आशातना ही करते हैं। श्री जिनेश्वर देव के मन्दिर में जाकर जिनेश्वर भगवंत की सेवा करके यही भावना करें कि हे भगवन्! आप वीतरागी हैं, मैं रागी हूं। मुझे वीतरागी बनना है, इसीलिए आपकी सेवा में आया हूं। आप के दर्शन व पूजन के योग से मुझ में वीतराग भाव प्रकट हो, यही मैं चाहता हूं। आपकी आत्मा 'पर' के संग से सर्वथा मुक्त बनी, इसी प्रकार मेरी आत्मा भी 'पर' के संग से सर्वथा मुक्त बने, यही मेरी भावना है। जैसे आप हैं, वैसा ही मैं बनना चाहता हूं। आप के जैसा बनने के लिए ही मैं आपकी शरण में आया हूं।

आप ही मेरे आधार हैं, आपकी शरण स्वीकार कर मैं आपकी आज्ञानुसार जीना चाहता हूं। आपकी पूजा के योग से मुझ में आपकी आज्ञा पालन करने का सामर्थ्य पैदा हो, यही मैं चाहता हूं। आपकी आज्ञा के अनुसरण सिवाय मेरी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि आपकी आज्ञा के अनुसरण में ही सभी का कल्याण रहा हुआ है। ऐसी श्रद्धा मेरी आत्मा में प्रकट हुई है।श्री जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा के सामने आँखें स्थिर कर व मन को एकाग्र कर इस प्रकार की भावना करनी चाहिए, परन्तु अन्तर में इस प्रकार की भावना पैदा होना भी अत्यंत कठिन है। आत्म-स्वभाव की पहचान हो और आत्म-स्वभाव को विकसित करने की भावना जगे तो यह भावना पैदा हो सकती है। इसके लिए पर-वस्तुएं आत्मा से भिन्न हैं’, यह भाव आना चाहिए।

उपाश्रय में से कौनसी ध्वनि निकलती है? आत्म-स्वभाव को प्रकट करने की ही न? इससे विपरीत ध्वनि निकले तो समझना चाहिए कि उपाश्रय में रोग फैल गया है। वह जल्दी बाहर निकले और दूसरे किसी को उसका चेप नहीं लग जाए, उसके लिए सावधानी आवश्यक है। उपाश्रय में आने पर आत्म-कल्याण की बातें सुनाई देती है और आत्म-कल्याण कर रहे महापुरुषों के दर्शन होते हैं। उसके योग से आत्मा को प्रेरणा मिलती है और अपने सत्त्व को विकसित करने की भावना जागृत होती है। उपाश्रय में दुनियावी पदार्थों का मोह बढाने वाली बातें नहीं हों, मात्र आत्म-कल्याण की ही बातें हों, तभी उपाश्रय में आने वाले के मोह पर प्रहार हो सकता है।

इसी प्रकार पाठशाला में भी आत्म-कल्याण का ही शिक्षण मिलना चाहिए। पाठशाला का शिक्षण जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना में सहायक होना चाहिए। पाठशाला से धर्म-क्रिया में रस बढना चाहिए। धर्म-क्रिया के सूत्र पढते समय धर्म-क्रिया के प्रति आदर भाव बढता जाए, वैसी योजना पाठशाला में होनी चाहिए, तभी पाठशाला मोह को मारने का साधन बन सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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